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पर्यावरण

उत्तराखंड में आपदाओं का जोखिम बढ़ाने वाले 10 कारण

देहरादून के मालदेवता क्षेत्र में डिफेंस एकेडमी की बिल्डिंग
देहरादून के पास मालदेवता क्षेत्र में गिरी निजी संस्थान की बिल्डिंग

उत्तराखंड में भारी बारिश से बाढ़ और भूस्खलन के चलते भीषण आपदा जैसे हालात पैदा हो गये हैं। बीते डेढ़ दिन चली लगातार बारिश से राज्य में व्यापक नुकसान हुआ है। विभिन्न इलाकों से तबाही की भयावह तस्वीरें और वीडियो सामने आ रहे हैं। जैसे-जैसे बारिश कम होगी और तबाही की वायरल तस्वीरें लोगों की याददाश्त से दूर होती जाएंगी। आपदा की चर्चाएं भी थम जाएंगी। इससे पहले कि ऐसा हो मैं उन 10 प्रमुख कारणों को रेखांकित करना चाहता हूं जो उत्तराखंड में आपदाओं के जोखिम को बढ़ा रहे हैं।

जलवायु परिवर्तन: पूरी दुनिया में जलवायु परिवर्तन चिंता का विषय है। इस साल हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में जिस तरह अतिवृष्टि और बादल फटने जैसी घटनाएं सामने आ रही हैं, उसे सीधे तौर पर जलवायु परिवर्तन से जोड़कर देखा जा रहा है। विभिन्न अध्ययन बताते हैं कि हिमालय में औसत तापमान वैश्विक और राष्ट्रीय औसत की तुलना में बहुत तेजी से बढ़ रहा है। पिघलते ग्लेशियर, घटते जल स्रोत और अत्यधिक वर्षा की घटनाओं से भारी क्षति होने की संभावना है।

हिमालय का भूगोल: हिमालय भूविज्ञान की दृष्टि से अपेक्षाकृत नई पर्वत श्रृंखला है। इसकी भौगोलिक संरचना कठोर चट्टानी ना होकर ढीली और भुरभुरी है। यहां भूगर्भीय हलचलें भी अधिक होती है जिसके कारण भूस्खलन और ढलान अस्थिरताओं का खतरा बढ़ जाता है। इसलिए जरूरी है कि बड़ी इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं पर आगे बढ़ते हुए हिमालय की संवेदनशीलता को ध्यान में रखा जाये।

उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र में तमाम गांव-कस्बे भूंधसाव की चपेट में आ रहे हैं। राज्य सरकार को भूधसांव पर गंभीरता से काम करने और त्वरित समाधान निकालने की जरूरत है। गत 10 अगस्त को रुद्रप्रयाग जिले के गौरीकुंड में भूस्खलन के मलबे में दबकर कार सवार 5 तीर्थयात्रियों की मौत हो गई। एनआरएससी रिपोर्ट (मार्च 2023) के अनुसार रुद्रप्रयाग भारत में भूस्खलन के लिहाज से सर्वाधिक जोखिम वाला जिला है। ऐसे आपदाग्रस्त क्षेत्रों में अतिरिक्त संयम और सावधानी बरतने की जरूरत है। लेकिन सरकार ऐसे संवेदनशील क्षेत्रों में पर्यटकों की रिकॉर्ड संख्या को उपलब्धि की तरह पेश करती है।

बड़े इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट: अक्सर सरकार और उसकी एजेंसियां पर्यावरणीय चिंताओं को दरकिनार कर बड़ी निर्माण परियोजनाएं को आगे बढ़ाती हैं। उत्तराखंड में चारधाम राजमार्ग, रेलवे प्रोजेक्ट और बड़ी बिजली परियोजनाओं को लेकर पर्यावरणविद और वैज्ञानिक लगातार आगाह करते रहे हैं। दिल्ली-देहरादून एक्सप्रेसवे के लिए मोहंड में नदी के बीचोंबीच पिलर गाड़ दिए गये, जो अब मलबे में धंसे हैं और आपदा को न्योता देते दिख रहे हैं। ऐसा विकास भले ही अल्पावधि में गतिशीलता को बढ़ा दे, लेकिन दीर्घअवधि में खतरों से इंकार नहीं किया जा सकता है।

मानवीय लालच: हिमालय का संवदेनशील पर्यावरण मानव के लालच और अतिक्रमण का शिकार हो रहा है। लोग हर जगह अतिक्रमण कर रहे हैं। अंधाधुंध निर्माण हो रहे हैं। प्रकृति के प्रति सम्मान का भाव कम होता जा रहा है। पर्वतीय क्षेत्रों में ऊंची इमारतें बनाने के लिए नदी-नालों का अतिक्रमण किया जा रहा है। स्थानीय जनप्रतिनिधियों और अधिकारियों की मिलीभगत से अवैध होटल, होम स्टे, रिसॉर्ट, मकान और यहां तक कि सरकारी इमारतें भी बनाई गई हैं। जब नदियां अपना मार्ग पुनः प्राप्त करती हैं तो तबाही का मंजर सामने आता है।

वहन क्षमता का उल्लंघन: जोशीमठ में भू-धंसाव की घटना राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियों में रही, लेकिन लोगों को बचाव की दिशा में कोई ठोस, कारगार काम नहीं हुआ। सरकार की तरफ से कहा गया था कि पूरे उत्तराखंड में सभी नगरों की वहन या धारण क्षमता का आंकलन किया जाएगा। लेकिन लगता है यह मामला भी ठंडे बस्ते में चला गया। यहां तक कि चार धाम में पर्यटकों की संख्या सीमित करने के लिए भी ठोस प्रयास नहीं किए जा रहे हैं। मसूरी में तमाम पाबंदियों के बावजूद आबादी का बोझ बढ़ा और निर्माण कार्य भी बेरोकटोक हो रहे हैं। अब तो दून घाटी को इको-सेंसटिव जोन के रूप में प्राप्त कानूनी कवच को भी हटाने की तैयारी है, ऐसी खबरें आ रही हैं।

पर्यटकों की तादाद: जुलाई-अगस्त में भारी बारिश के बावजूद चार धाम यात्रा जारी रखी गई। नतीजा यह हुआ कि जगह-जगह भूस्खलन के कारण चार धाम हाईवे अवरुद्ध होने के बाद बीच-बीच में यात्रियों को रोकना पड़ा। यह आपदा में संकट को न्योता देने जैसा है। चारधाम यात्रा में पर्यटकों की तादाद निर्धारित करने का मामला भी स्थानीय लोगों के दबाव में ठुलमुल रवैये का शिकार हुआ। राज्य सरकार ने 2023 की मौजूदा यात्रा के लिए चार धामों में 47,500 तीर्थयात्रियों की सीमा तय की थी, लेकिन आखिरी समय में इसे वापस ले लिया गया। हिमालय के भूगोल और आपदाओं के जोखिम को देखते हुए उत्तराखंड में टूरिज्म के वर्तमान मॉडल में बदलाव की जरूरत है। कई देशों में अत्यधिक टूरिज्म के खिलाफ ट्रेंड शुरू हो चुका है। पर्यटकों की संख्या के रिकॉर्ड बनाने की सोच ठीक नहीं है। सस्टेनेबल टूरिज्म के रास्ते पर चलना ही इस दौर की मांग है।

वनों का कटान: उत्तराखंड में पिछले 15 साल में 14,141 हेक्टेयर जंगल गैर-वानिक उद्देश्यों के लिए डाइवर्ट हुए हैं। इस मामले में देश के टॉप 10 राज्यों में हिमालयी राज्यों में सिर्फ उत्तराखंड इस फेहरिस्त में है। पिछले 15 साल में उत्तराखंड में हर साल औसतन 943 हेक्टेयर जंगल डाइवर्ट हुए। इन आंकड़ों को बढ़ती हुई आपदाओं और क्लाइमेट चेंज के दुष्परिणामों के आलोक में देखना बेहद जरूरी है। एक तरफ जहां जंगल काटे जा रहे हैं वहीं वन (संरक्षण) संशोधन विधेयक, 2023 के प्रभावों पर उत्तराखंड में लगभग कोई चर्चा नहीं हुई है। इस कानून के अमल में आने से उत्तराखंड जैसे सीमावर्ती राज्य में संभवतः बड़े पैमाने पर वनों का कटान देखने को मिलेगा। क्योंकि नया कानून वन के संरक्षण से जुड़े कई प्रावधानों को कमजोर करता है।

आपदा प्रबंधन की खामियां: अक्सर जरूरी कदम आपदा आने के बाद उठाए जाते हैं। हाल में हुई गौरीकुंड त्रासदी के बाद घटनास्थाल के आसपास की 40 दुकानें ध्वस्त कर दी गईं। अगर ये दुकानें पहले हटा दी जातीं तो शायद लोगों की जान बच जाती। राज्य में से 400 से अधिक गांवों को पुनर्वास की आवश्यकता है। इस दिशा में भी गंभीरता से काम होता नहीं दिख रहा है जबकि ये गांव आपदा के मुहाने पर खड़े हैं। पीडब्ल्यूडी की नवीनतम सुरक्षा ऑडिट रिपोर्ट में राज्य के 75 असुरक्षित पुल हैं। इसकी तुलना में नवंबर 2022 में 36 असुरक्षित पुल थे। असुरक्षित पुल दोगुने हो गए हैं। अंधाधुंध, अवैध खनन पुलों को नुकसान पहुंचा रहा है। यह भी आपदाओं को न्योता है।

प्रभावी सूचना तंत्र का अभाव: उत्तराखंड में आपदा प्रबंधन की वेबसाइट तक अपडेट नहीं है। कई पेज और लिंक खुलते ही नहीं हैं। कई जरूरी अलर्ट और एडवाइजरी वेबसाइट पर उपलब्ध नहीं हैं। सड़क की स्थिति 4 साल पहले (सितंबर 2019) की है। 18 जुलाई 2023 से अब तक कोई ट्वीट नहीं है। जबकि भारी बारिश/आपदा में सूचनाओं के मोर्चे पर भी सरकार को अलर्ट और अपडेट रहने की आवश्यकता है।

मौसम पूर्वानुमान सटीक ना होना: हर साल आपदाओं के बावजूद मौसम के पूर्वानुमान और चेतावनी प्रणाली में कई कमियां हैं। उदाहरण के तौर पर, पिछले दिनों देहरादून में गंभीर/भारी बारिश की चेतावनी प्राप्त हुई। लेकिन उसमें यह स्पष्ट नहीं था कि यह दून, पौडी शहर के लिए है या जिले के लिए है (हालांकि यह आमतौर पर जिलों के लिए होती है)। फिर देहरादून जिला 3088 वर्ग किलोमीटर का है। अलर्ट किन जगहों और किस समय के लिए है, यह स्पष्ट और सटीक होना चाहिए। अर्ली वार्निंग सिस्टम को लेकर भी जितनी बातें हुई हैं, धरातल पर उतना काम नहीं हुआ।

उत्तराखंड में इस मानसून के दौरान भारी नुकसान हुआ है। अगर इसके बाद भी कोई सबक नहीं सीखा गया तो बड़े अफसोस की बात होगी। मौसम का मिजाज किसी के वश में नहीं है लेकिन हम बेहतर प्लानिंग और गवर्नेंस के जरिए आपदाओं की मार को कम कर सकते हैं। रेस्क्यू, रिकवरी और रिसायलेंस (3आर) की योजना सरकार के नियंत्रण में है। इस मोर्चे पर गहन/निरंतर कार्रवाई की दरकार है। केंद्र सरकार को भी उत्तराखंड को आपदाओं से निपटने में बेहतर तैयारी के लिए और अधिक मदद करनी चाहिए।

यदि हम उत्तराखंड के लिए बेहतर भविष्य चाहते हैं, तो विकास के वर्तमान मॉडल पर पुनर्विचार करना होगा। आपदाओं के जोखिम को कम करने के लिए अनियोजित और अंधाधुंध विकास का रास्ता छोड़ना ही पड़ेगा। हालांकि, पर्यावरण संरक्षण और आर्थिक विकास के बीच संतुलन बनाने में कई चुनौतियां हैं। लेकिन संतुलित पर्यटन, प्राकृतिक कृषि और बागवानी में गंभीर प्रयास वांछित परिणाम दे सकते हैं। यह सुनने में भले ही घिसा-पिटा लगे लेकिन लोगों की सुरक्षा के लिए सरकार, समाज और बाजार को मिलकर विकास के टिकाऊ व संतुलित मॉडल को चुनना होगा।

  • अनूप नौटियाल

    अनूप नौटियाल उत्तराखंड के विभिन्न नीतिगत मुद्दों पर सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता तथा एसडीसी फाउंडेशन के संस्थापक हैं।

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