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पर्यावरण

सामान्य वर्षा के आंकड़ों में छिपी चरम मौसमीय घटनाओं की मार

https://internal.imd.gov.in/press_release/20231001_pr_2555.pdf
https://internal.imd.gov.in/press_release/20231001_pr_2555.pdf

इस साल मानसून सीजन के दौरान उत्तराखंड में दीर्घकालीन औसत के मुकाबले 103 फीसदी बारिश हुई जो सामान्य वर्षा की श्रेणी में आता है। लेकिन गहराई से देखें तो पता चलता है कि मानसून पर चरम मौसमीय घटनाएं हावी रही हैं। जलवायु परिवर्तन की गंभीर चुनौती के बीच चरम मौसमीय घटनाओं और इनके असर को लेकर चिंताएं बढ़ रही हैं। मीडिया कवरेज और आम चर्चाओं में ये चिंताएं आपदाओं के वक्त अधिक सुनाई पड़ती हैं। तब भी अधिक जोर तात्कालिक नुकसान की जानकारी पर होता है, जबकि जलवायु परिवर्तन से संबंध देखने की ज्यादा कोशिश नहीं की जाती है।

उत्तराखंड पर जलवायु परिवर्तन के खतरों और सतत विकास के विकल्पों पर गत शुक्रवार को क्लाइमेट ट्रेंड्स की ओर से देहरादून में एक परिचर्चा आयोजित की गई। इस मौके पर उत्तराखंड में मानसून के स्थिति पर एक विश्लेषण जारी किया गया। मौसम विभाग के आंकड़ों पर आधारित इस विश्लेषण के अनुसार, उत्तराखंड भले ही सामान्य वर्षा की श्रेणी में आ गया है, लेकिन ज्यादातर बारिश की भरपाई ‘अधिक’ या ‘अत्यधिक’ बारिश के कारण हुई है। राज्य में जुलाई में सामान्य से 31 फीसदी अधिक बारिश हुई तो जून में बारिश का आंकड़ा सामान्य से 15 फीसदी और सितंबर में 17 फीसदी कम रहा है। राज्य का 23 फीसदी हिस्सा बारिश की कमी से जूझ रहा है जबकि 38 फीसदी भूभाग में अधिक या अत्यधिक बारिश हुई।

मानसून सीजन के दौरान उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले में सबसे ज्यादा 111 दिन बारिश हुई जबकि हरिद्वार में 68 दिन बारिश वाले रहे। क्लाइमेट ट्रेंडस की निदेशक आरती खोसला के प्रजेंटेशन के अनुसार, मानसून सीजन के दौरान उत्तराखंड में चरम मौसम की 68 घटनाएं हुईं जो देश में तीसरी सर्वाधिक हैं। राज्य में बाढ़, भूस्खलन, हीटवेव, जंगलों की आग और ग्लेशियरों के तेजी से पिघलने की घटनाओं और जलवायु परिवर्तन से इनके संबंध को समझने की आवश्यकता है। अक्सर आपदाओं की रिपोर्टिंग में जलवायु परिवर्तन और इसके असर को नजरअंदाज कर दिया जाता है। रायटर्स इंस्टीट्यूट के एक अध्ययन के अनुसार, भारत में 2022 की हीटवेव पर सिर्फ 7 फीसदी हिंदी लेखों में जलवायु परिवर्तन का उल्लेख किया गया था।

क्लाइमेट ट्रेंड्स के अध्ययन में दावा किया गया है कि उत्तराखंड के 85 फीसदी जिले जिनकी आबादी 90 लाख से अधिक है, वह प्राकृतिक आपदा जैसे बादल फटना, बाढ़, भूस्खलन जैसे खतरों के मुहाने पर खड़े हैं। प्रदेश में 1970 के बाद से ऐसी घटनाओं में चार गुना वृद्धि हुई है। इस अवधि के दौरान राज्य में सूखे में दोगुनी वृद्धि हुई है। राज्य के चमोली, हरिद्वार, नैनीताल, पिथौरागढ़ और उत्तरकाशी जिला प्राकृतिक आपदा के प्रति सबसे संवेदनशील है।

क्लाइमेट ट्रेंडस के विश्लेषण के अनुसार, जब-जब चरम मौसम की घटनाएं होती हैं, तब इनके बारे में मीडिया और सोशल मीडिया में चर्चाएं बढ़ जाती हैं। पर्यावरण अनुकूल जीवन-शैली को लेकर जागरूकता बढ़ी है। लेकिन आपदाओं की अधिकतर रिपोर्टिंग जान-माल के नुकसान की सूचनाओं तक सीमित रहती हैं। जबकि जलवायु परिवर्तन के आजीविका, कृषि, भोजन, स्वास्थ्य और पलायन पर पड़ने वाले असर को भी देखने की आवश्यकता है। उत्तराखंड में पलायन और खाली होते गांवों की चर्चाओं को जलवायु परिवर्तन से जोड़कर कम ही देखा जाता है। आपदा की तैयारी और न्यूनीकरण पर भी ज्यादा चर्चा नहीं होती है। स्थानीय लोग जलवायु परिवर्तन की चुनौती का किस तरह मुकाबला कर रहे हैं, इसे भी समझना होगा।

विशेषज्ञों का कहना है कि भारत को अपनी विकास योजनाओं के केंद्र में जलवायु परिवर्तन के विज्ञान को शामिल करना जरूरी है। कार्यक्रम में एनडीएमए से संयुक्त सचिव कुणाल सत्यार्थी, एसपीसीबी से एसके पटनायक, कपिल जोशी (अतिरिक्त पीसीसीएफ-पर्यावरण), बिक्रम सिंह (आईएमडी), डॉ. कलाचंद सैन, निदेशक वाडिया इंस्टीट्यूट, डॉ. पूनम गुप्ता (यूसीओएसटी) और डॉ. रीमा पन्त शामिल हुए।

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