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पर्यावरण

क्या ‘धरती मां’ को जहर से बचा पाएगा नया कीटनाशक विधेयक

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाल किले की प्राचीर से धरती मां को रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के जहर से बचाने का आह्वान किया था। फिलहाल देश में कीटनाशकों से जुड़े नियम-कायदे 51 साल पुराने इंसेक्टीसाइड एक्ट, 1968 से तय होते हैं। वह हरित क्रांति का दौर था इसलिए पूरा जोर फसलों को बचाकर उत्पाद बढ़ाने पर रहा। क्योंकि करोड़ों लोगों का पेट भरना था।

अब पर्यावरण और मानव स्वास्थ्य पर कीटनाशकों के दुष्परिणाम नजर आने लगे हैं। मगर नया कीटनाशक प्रबंधन विधेयक भी पर्यावरण और किसानों के बजाय बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हितों के ज्यादा अनुकूल दिख रहा है। इसका पूरा फोकस कीटनाशकों की गुणवत्ता, लाइसेंस, पंजीकरण जैसी प्रक्रियाओं पर है न कि कीटनाशकों के इस्तेमाल को कम करने और भोजन व पर्यावरण को इस जहर से बचाने पर।

11 साल से अटका मुद्दा 

कीटनाशक प्रबंधन विधेयक का मुद्दा संसद में साल 2008 से अटका हुआ है। मोदी सरकार भी 2017 से नया पेस्टीसाइड मैनेजमेंट बिल लाने की कोशिश कर रही है। लेकिन प्रावधानों पर सहमति नहीं बन पाई। भारत दुनिया में एग्रो-कैमिकल्स का चौथा सबसे बड़ा उत्पादक है और देश में कीटनाशकों का बाजार करीब 20 हजार करोड़ रुपये का है। जाहिर है इतने बड़े कारोबार को प्रभावित करने वाला कोई भी कानून तमाम तरह के दबाव से होकर गुजरेगा। यही इसमें देरी की वजह है। अब उम्मीद की जा रही है कि जल्द ही पेस्टीसाइड मैनेजमेंट बिल, 2019 संसद में पेश होगा।

नया मसौदा सार्वजनिक नहीं

कृषि, पर्यावरण, मानव स्वास्थ्य और समूचे पेस्टीसाइड सेक्टर को प्रभावित करने वाले इस विधेयक का नया मसौदा अभी तक सार्वजनिक नहीं हुआ है। मतलब, जिस कानून से कीटनाशकों से जुड़े नियम-कायदों में पारदर्शिता बढ़ाने की उम्मीद की जा रही है, उसके बनने की प्रक्रिया में ही पारदर्शिता का अभाव है।

करीब दो साल पहले फरवरी, 2018 में कृषि मंत्रालय ने पेस्टीसाइड मैनेजमेंट बिल, 2017 का मसौदा जारी करते हुए इस पर सुझाव मांगे थे। विधेयक के उस मसौदे में तमाम खामियां थी, जिन पर बहुत से सवाल उठे थे।

अब कहना मुश्किल है कि लंबे विचार-विमर्श के बाद जो विधेयक संसद में पेश होने जा रहा है, उसमें कितना सुधार हुआ है और कितनी खामियां बाकी हैं। गत 27 नवंबर को कृषि मंत्रालय को लिखे एक पत्र में अलायंस फॉर सस्टेनेबल एंड हॉलिस्टिक एग्रीकल्चर (आशा) ने नए विधेयक को सार्वजनिक करने की मांग करते हुए 2017 के मसौदे पर फिर से कई सुझाव और आपत्तियां दर्ज कराई हैं। आशा की कविता कुरुघंटी ने असलीभारत.कॉम को बताया किया कि इस सत्र में पेस्टीसाइड मैनेजमेंट बिल, 2019 के पेश होने की खबरें आ रही हैं लेकिन मंत्रालय की वेबसाइट पर अभी तक 2017 का मसौदा उपलब्ध है, जिसमें भयंकर कमियां हैं।

विधेयक के मकसद पर सवाल

सबसे बड़ा सवाल यह है कि कीटनाशक प्रबंधन विधेयक पर्यावरण और किसानों की रक्षा के लिए है या बड़ी कंपनियों का हित साधने के लिए। आशा से जुड़े संगठनों की मांग है कि विधेयक का फोकस सिंथेटिक पेस्टीसाइड के दुष्प्रभावों से मानव स्वास्थ्य और पर्यावरण को बचाने यानी बायो-सेफ्टी और कीटनाशकों का इस्तेमाल कम करने पर होना चाहिए। 2017 के विधेयक का मसौदा इस कसौटी पर कतई खरा नहीं उतरता है।

नया मसौदा पहले से व्यापक मगर कई खामियां 

कृषि मंत्रालय से जुड़े सूत्रों के मुताबिक, पेस्टीसाइड मैनेजमेंट बिल, 2019 का मसौदा तैयार हो चुका है। इस पर अनौपचारिक रूप से सलाह-मशविरा लिया जा रहा है। हालांकि, पुराने मसौदे की कई विसंगतियों नए ड्राफ्ट में भी मौजूद हैं।

कानून का दायर और परिभाषा

नए विधेयक की प्रस्तावना का विस्तार करते हुए इसमें कीटनाशकों के उत्पादन, आयात, निर्यात, पैकेजिंग, लेबलिंग, दाम, भंडारण, विज्ञापन, बिक्री, परिवहन, वितरण, प्रयोग और निपटान के नियमों के साथ-साथ मनुष्य और जीव-जंतुओं के प्रति जोखिम को कम करने और पारंपरिक ज्ञान पर आधारित जैविक कीटनाशकों को बढ़ावा देने के प्रयासों को शामिल किया गया है। यह परिभाषा पहले से ज्यादा व्यापक है। लेकिन इसमें पर्यावरण का जिक्र नहीं है।

किसान संगठनों ने कीटनाशकों की परिभाषा में फफूंदनाशी, खरपतवारनाशी आदि को शामिल करने की मांग करते हुए घरों और चिकित्सा में कीटनाशकों के इस्तेमाल को भी कानून के दायरे में लाने का सुझाव दिया है। मगर नए मसौदे में कीटनाशक, फफूंदीनाशक और खरपतवारनाशक आदि का भेद खत्म करते हुए सबको पेस्टीसाइड की परिभाषा में समेट लिया है।

भाजपा किसान मोर्चा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष नरेश सिरोही का कहना है कि कीटनाशक विधेयक से जुड़े उनके अधिकांश सुझावों को सरकार ने मान लिया है और अब पेश होने जा रहा विधेयक काफी व्यापक और बेहतर है।

कीटनाशक निरीक्षण

मौजूदा कीटनाशक अधिनियम की तरह नए कानून को लागू कराने का बड़ा दारोमदार पेस्टीसाइड इंस्पेक्टरों पर रहेगा। 2017 के विधेयक के तहत कार्यकारी मजिस्ट्रेट की अनुमति के बिना कीटनाशक इंस्पेक्टर कीटनाशक की बिक्री या वितरण पर रोक नहीं लगा सकता था। इसका काफी विरोध हुआ, जिसे देखते हुए नए मसौदे में कीटनाशक निरीक्षकों को बिक्री या वितरण पर 60 दिन से अधिक समय तक रोक लगाने का अधिकार दिया गया है। लेकिन उसे 48 घंटे के अंदर कार्यकारी मजिस्ट्रेट की अनुमति लेनी होगी। कीटनाशक को जब्त करने पर भी निरीक्षकों को 14 दिन के भीतर न्यायिक मजिस्ट्रेट को सूचित करना होगा।

कीटनाशक निरीक्षकों की शक्तियां में कुछ संशोधनों के बावजूद नया विधेयक कीटनाशकों के सुरक्षित इस्तेमाल के लिए जागरुकता बढ़ाने, कीटनाशकों के प्रयोग में कमी और पर्यावरण पर दुष्प्रभाव की निगरानी से बच रहा है। जबकि पेस्टीसाइड कंपनियां और डीलर किसान की मजबूरी का फायदा उठाकर कीटनाशकों के अंधाधुंध प्रयोग को बढ़ावा देते हैं। इसके लिए प्रचार और मार्केटिंग के हथकंडे अपनाते हैं। खेती की लागत और किसानों पर कर्ज का बोझ बढ़ाने में कीटनाशकों के अंधाधुंध प्रयोग का बड़ा हाथ है।

नया कीटनाशक विधेयक इस तरह के हथकंडों पर अंकुश लगाने के बजाय कीटनाशकों की गुणवत्ता, प्रभाव, पंजीकरण और लाइसेंस आदि की प्रक्रियाओं पर ज्यादा केंद्रित है। हालांकि, उचित दाम पर कीटनाशकों की उपलब्धता सुनिश्चित कराने के लिए केंद्र सरकार एक प्राधिकरण का गठन कर सकती है। मगर फिर भी डीलर या डिस्ट्रीब्यूटर के स्तर पर होने वाली गड़बड़ियों को रोकने में नया कानून कमजोर नजर आता है।

केंद्रीय कीटनाशी बोर्ड

देश में कीटनाशकों की गुणवत्ता, उत्पादन की पद्धति और निपटान के तरीकों के बारे में केंद्र व राज्य सरकारों को परामर्श देने के लिए नए विधेयक में केंद्रीय कीटनाशी बोर्ड की स्थापना का प्रावधान है। इसमें 5 राज्यों और 2 किसान प्रतिनिधि शामिल होंगे। किसान प्रतिनिधियों में एक महिला होगी। इतने बड़े और विविधता वाले देश के लिए सिर्फ दो किसान प्रतिनिधि पर्याप्त नहीं हैं। राज्य भी इसमें प्रतिनिधित्व बढ़ाने की मांग कर सकते हैं।

कीटनाशकों का पंजीकरण और निषेध

कीटनाशकों के प्रभाव, आवश्यकता और जोखिम को ध्यान में रखकर उनका पंजीकरण किया जाएगा। इसके लिए एक पंजीकरण समिति का गठन होगा जो राष्ट्रीय कीटनाशक रजिस्टर तैयार करेगी। पंजीकृत कीटनाशकों की समय-समय पर समीक्षा की मांग को नए मझौदे में शामिल किया गया है। लेकिन विदेशों में प्रतिबंधित या अपंजीकृत कीटनाशकों के इस्तेमाल को रोकने का प्रत्यक्ष प्रावधान नए विधेयक में भी नहीं है।

नए विधेयक के अनुसार, केंद्र और राज्य सरकारें किसी कीटनाशक की सुरक्षा या प्रभाव की समीक्षा करवा सकती हैं या फिर उन पर एक साल के लिए रोक लगा सकती हैं। लेकिन कीटनाशकों के नियमन के मामले में यह विधेयक राज्य सरकारों को केंद्र से कमतर अधिकार देता है। जबकि किसी हादसे की स्थिति में पहली जवाबदेही राज्य सरकारों की ही बनती है।

2017 के मसौदे में निजी प्रयोगशालाओं को केंद्रीय कीटनाशी प्रयोगशाला के तौर पर काम करने की छूट देने के प्रावधान का काफी विरोध हुआ था। विधेयक के नए मसौदे में भी निजी प्रयोगशालाओं के लिए रास्ते खोले जा रहे हैं।

कीटनाशकों के दुष्प्रभाव

नए विधेयक के अनुसार, राज्य सरकार विषाक्तता के मामलों पर नजर रखेंंगी और केंद्र सरकार को तिमाही रिपोर्ट भेजेंगी। राज्य सरकारें ऐसी घटनाओं से निपटने के लिए योजना भी बनाएंगी।

कृषि और पर्यावरण से जुड़े मुद्दों के जानकार श्रीधर राधाकृष्णन का कहना है कि कीटनाशक प्रबंधन विधेयक खुद पीएम मोदी की धरती मां को जहर मुक्त बनाने की मंशा के अनुरुप नहीं है। इसलिए बेहतर होगा कि व्यापक विचार-विमर्श कर नया विधेयक तैयार किया जाए जो मिट्टी, पर्यावरण और भोजन को जहर मुक्त बनाने की दिशा में ज्यादा कारगर हो।

अपराध और दंड

नए विधेयक में नियमों का उल्लंघन करने पर 25 हजार रुपये से 40 लाख रुपये तक जुर्माने या 3 साल तक की जेल या दोनों का प्रावधान है। कीटनाशकों के इस्तेमाल से किसी मृत्यु होने पर 10 लाख रुपये से 50 लाख रुपये तक जुर्माना या 5 साल की जेल अथवा दोनों हो सकते हैं। मौजूदा कानून में सिर्फ 500-75000 रुपये तक जुर्माने और 6 महीने से 2 साल तक जेल या दोनों का प्रावधान है।

हालांकि, किसी व्यक्ति द्वारा खुद के घरेलू इस्तेमाल या बगीचे या खेती में कीटनाशक के प्रयोग के लिए मुकदमा नहीं चलाया जाएगा। ऐसे लोग सजा भी के पात्र नहीं होंगे, जिन्होंने कीटनाशक का आयात या उत्पादन नहीं किया है। बशर्ते, उन्होंने वैध लाइसेंसधारक से कीटनाशक खरीदा हो। कीटनाशक का भंडारण सही तरीके से किया गया हो और उसे कीटनाशक के नकली या अमानक होने की जानकारी न हो।

मुआवजा कंज्यूमर कोर्ट भरोसे

हाल के वर्षों में कीटनाशकों की वजह से सैकड़ों किसानों की मौत के बावजूद नए विधेयक में कीटनाशकों के प्रत्याशित परिणाम न देने या किसी प्रकार की क्षति होने पर प्रभावित किसान या व्यक्ति उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के तहत ही मुआवजे का दावा कर सकेंगे। यह इस कानून की सबसे कमजोर कड़ी है। बस ऐसे मामलों की शिकायत की व्यवस्था की गई है। लेकिन मुआवजा कंज्यूमर कोर्ट से ही मिलेगा। केंद्र सरकार एक निधि की व्यवस्था जरूर करेगी जिसका प्रयोग विषाक्तता की घटनाओं से प्रभावित लोगों को अनुग्रह अनुदान देने के लिए किया जाएगा।

अगर केंद्र सरकार वाकई धरती मां को कीटनाशकों के जहर से बचाना चाहती है तो वास्तव में ऐसे कानून की जरूरत है जो न सिर्फ कीटनाशकों की गुणवत्ता सुनिश्चित करे बल्कि पर्यावरण और मानव स्वास्थ्य पर इनके दुष्प्रभावों को कम करने के साथ-साथ किसी प्रकार की क्षति की जवाबदेही भी तय करे। फिलहाल कीटनाशक विधेयक का जो मसौदा सामने है या नए मसौदे की जितनी जानकारी उपलब्ध है, उस हिसाब से नया कानून धरती मां को शायद ही जहरमुक्त बनाने में मददगार साबित हो सके।

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