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विजय दिवस: 1971 की शौर्यगाथा और रणभूमि की यादें

1971 की शौर्यगाथा में उत्तराखंड के सैनिकों के नाम भी शामिल हैं जिन्होंने अपने पराक्रम से पाकिस्तानी सेना को धूल चटाने में अहम भूमिका निभाई थी

आज पूरा देश 1971 की लड़ाई में मिली जीत का जश्न ‘विजय दिवस’ मनाया जा रहा है। 1971 की लड़ाई की यह वह जीत थी जिसने पाकिस्तानी सेना के लेफ्टिनेंट जनरल एएके नियाजी को 93 हजार सैनिकों के साथ भारतीय सेना के सामने घुटने टेकने को मजबूर कर दिया था। इस आत्मसमर्पण की निशानी के तौर जनरल नियाजी की पिस्तौल आज भी देहरादून स्थित भारतीय सैन्य अकादमी में रखी है। इस शौर्यगाथा में उत्तराखंड के सैनिकों के नाम भी शामिल हैं जिन्होंने अपने पराक्रम से पाकिस्तानी सेना को धूल चटाने में अहम भूमिका निभाई थी। 1971 के लड़ाई में भारतीय सेना के लगभग 3,900 सैनिक शहीद हो गये थे। जिसमें से लगभग 255 उत्तराखंड के सैनिक थे। तेरह दिनों तक चले इस युद्ध में तीस मिनट निर्णायक साबित हुए और पाकिस्तानी सेना घुटनों पर आ गई थी।

1971 के जांबाज

इस लड़ाई में सैन्य भूमि उत्तराखंड के सपूतों ने भी जान की बाजी लगा कर पाकिस्तानी सेना को मुंंहतोड़ जवाब दिया था। इनमें से एक जवान हैं विंग कमांडर विनोद नेब वीआरसी, (तब फ्लाइट लेफ्टिनेंट) जो आज भले ही उम्रदराज हो चुके हों लेकिन देश के प्रति उनका जज्बा आज भी 1971 के जवान जैसा ही है। एक लड़ाकू पायलट जो आज भी वह समर गाथा सुनाते हैं तो लगता है कि उस क्षण को फिर से जी रहे हैं। उन्होंने 22 वर्ष की उम्र में 1965 की लड़ाई में दुश्मन का एक सेबर जेट उड़ा दिया था और 1971 की लड़ाई में दुश्मन को नाकों चने चबवा दिए थे। 

फ्लाइट लेफ्टिनेंट विनोद नैब

एक मुलाकात में विंग कमांडर विनोद नैब (रि.) ने बताया कि लड़ाई तो 3 दिसंबर को शुरू हो गई थी। 4 दिसंबर को उन्होंने दुश्मन के जहाज को गिरा दिया था। इसके बाद वे दुश्मन के बाकी जहाजों को मार गिराना चाहते थे लेकिन उनके जहाज में ईंधन कम होने की चेतावनी मिली। उन्होंने किसी तरह अपने जहाज को सुरक्षित लैंड कराया। लैंड करते ही जहाज का ईंधन भी खत्म हो गया। नैब कहते हैं वे खुशकिस्मत थे। इसके बाद कोमिला सेक्टर में उन्होंने जमीनी हमलों के मिशन में उड़ानें भरी। वहीं कोमिला में एक टैंक को उड़ाने का लक्ष्य उनके सामने था, लेकिन जब अटैक करने गये तो उस पर रेडक्रॉस का निशान बना दिखा जिस कारण कुछ समय के लिए रूक गये। लेकिन उन्हें बताया गया कि यह निशान गुमराह करने के लिए बनाया गया है जबकि वह एक फ्यूल टैंक है। जब उन्होंने टैंक पर बम गिराये तो आग की लपटों की आंच उन तक भी आई। विंग कमांडर नेब को उनके साहस के लिए बार टू वीर चक्र से सम्मानित किया गया है। वे दो बार वीर चक्र से सम्मानित हो चुके हैं।

इसी तरह से भारतीय सेना के कर्नल (रि.) जेपी रैना ने भी 1971 की लड़ाई में पाकिस्तानी सेना छक्के छुड़ा दिए थे। उनको इस बहादुरी के लिए गैलेंटरी अवार्ड मिला है। एक बातचीत में कर्नल रैना ने बताया कि उस समय वे कैप्टन थे और सेना में भर्ती हुए तीन साल ही हुए थे। वे राजपूत रेजीमेंट में थे। उनकी यूनिट उस समय बाड़मेर सेक्टर में थी। जहां उनको किंसर में जाने का आदेश हुआ था। 6 दिसंबर को उनकी यूनिट सुबह ही किंसर पहुंच गयी थी। वहां पाकिस्तानी सेना के साथ काफी घमासान हुआ था और उन्होंने 32 पाकिस्तानी मारे थे। थार रेगिस्तान के किंसर पर उनकी यूनिट ने कब्जा कर लिया था। यहां से पाकिस्तानी सेना के दो अफसर और जवान पकड़ का युद्धबंदी बनाए थे। इसके बाद वे लोग छाछरो पहुंचे। यहां भी भारतीय सेना ने पाकिस्तानी सेना को नुकसान पहुंचाया जिस पर वे लोग अपना गोला-बारूद वगैरह छोड़ कर भाग गये थे। छाछरो पर कब्जा करने के बाद उमरकोट पर कब्जा करने के लिए आगे बढे तो तब तक सीज फायर हो गया था। जबकि उमरकोट वहां से 35 किमी की दूरी पर था। हमने 110 किमी तक अंदर घुस कर जो कब्जा किया था वह शिमला समझौते के चलते वापस हो गया।

चीन को मिलेगा करार जवाब 

भारत और चीन के बीच सीमा पर टकराव को लेकर कर्नल रैना कहते हैं कि इन दोनों देशों के बीच बॉर्डर नहीं है। केवल मैकमोहन लाइन है। यह कोई लाइन खींची नहीं गई है बल्कि इमेजनरी लाइन है। इस पहाड़ी से उस पहाड़ी तक, यह नाला हमारा, यह नदी उनकी इस तरह से लाइन मानी जाती है। चीन की सेना अपना डोमिनेशन पॉवर दिखाने के लिए लाइन क्रॉस करते हैं। तब दोनों देशों की सेनाओं के बीच धक्कामुक्की होती रहती है। भारत की सेना उनको जमकर पीटती है। पहले गलवान और अब तवांग में जो हुआ है तो सेना पूरी तैयारी रखती है। तवांग के आगे सेना की बड़ी पोस्ट और अच्छी संख्या में जवान तैनात हैं। चीनी बार-बार घुसैपठ करते हैं तो भारतीय सेना उनको पीटकर वापस भेज देती है। यह सब चलता रहता है, यह राजनैतिक खेल है। सेना का काम है देश की रक्षा करना और हम हमेशा यही करते हैं।

कर्नल रैना बताते हैं कि अब चीन के सेना डंडे पर कांटेदार तार बांध कर लड़ने के लिए आते हैं लेकिन हम भी कम नहीं हैं। हम भी उनके बाप हैं। भारतीय सेना ने तवांग में यही किया और चाइनीज को खूब पीटकर खदेड़ दिया। हम अपनी पोस्ट नहीं छोड़ सकते हैं। वैसे तो यह राजनैतिक मसला है लेकिन आर्मी को इससे कोई सरोकार नहीं है। आर्मी को इतनी आजादी है कि वह ऐसे मौकों पर खुद ही एक्शन ले लेती है। अब सरकार की पॉलिसी काफी बदल गई है। चीन की फौज में शीर्षस्थ अधिकारी राजनीति से जुड़े हुए हैं। उनका प्रशिक्षण बेहद कमजोर है वे लड़ नहीं सकते हैं। हमारे जवान तो शारीरिक और मानसिक तौर पर काफी मजबूत हैं और उनके सामने चीनी सैनिक टिक ही नहीं सकते हैं। अब वैसे भी सेना हर तरह से मजबूत हो चुकी है और नये अत्याधुनिक हथियार सेना के पास आ चुके हैं।

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