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मंथन

कैसे लग सकती है पीएचडी के धंधे पर रोक?

विगत तीन दशक में असिस्टेंट प्रोफेसर की नियुक्ति में नेट की अनिवार्यता को लेकर यूजीसी ने जितनी बार यू-टर्न लिया है, वह हैरत में डालने वाला है

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भारत में उपाधि केंद्रित शोध (पीएच.डी.) अक्सर ही सवालों के घेरे में रहा है। उच्च शिक्षा में प्राइवेट सेक्टर के विस्तार के बाद शोध उपाधियों की खरीद-फरोख्त के मामले बेहद तेजी से बढ़े हैं। हिमाचल, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्यप्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़ और पूर्वाेत्तर राज्यों के कई विश्वविद्यालयों के पीएच.डी. उपाधियों से जुड़े मामले मीडिया की सुर्खिया बन चुके हैं। इस समस्या के विषय में उच्च शिक्षा से जुड़े लोग अच्छी तरह भिज्ञ हैं। अब सवाल यह है कि इसका समाधान क्या है ? और क्या सरकार के स्तर पर कुछ ऐसे कदम उठाए जा सकते हैं जिनसे शोध उपाधि के धंधे पर रोक लग सके ? इन दोनों सवालों का जवाब ‘हां‘ में दिया जा सकता है। खास बात यह है कि इसके लिए न तो अलग से कोई कानून बनाने की जरूरत है और न ही संबंधित धंधेबाज विश्वविद्यालयों को बंद करने की। इसका बहुत आसान समाधान शोध उपाधि में प्रवेश की न्यूनतम अर्हता और प्रवेश की प्रक्रिया को बदलने में छिपा हुआ है।

वर्तमान में पीएच.डी. उपाधि में दो प्रकार से प्रवेश लिया जा सकता है। जिन्होंने यूजीसी, सीएसआईआर (कुछ मामलों में आईसीएआर) से नेशनल एलिजिबिलिटी टेस्ट यानी नेट अथवा राज्य स्तर का सेट/स्लेट पास किया हुआ है, वे सीधे साक्षात्कार के आधार पर प्रवेश पा सकते हैं। दूसरा तरीका विश्वविद्यालयों द्वारा ली जाने वाली प्रवेश परीक्षा है। इस परीक्षा में पास होने वाले युवाओं को साक्षात्कार के बाद पीएच.डी. (कुछ विश्वविद्यालयों में इस उपाधि को डी.फिल. भी कहा जाता है) उपाधि में प्रवेश दिया जाता है। इस परीक्षा का आयोजन सभी विश्वविद्यालय अपने स्तर पर करते हैं। इस मामले में सरकारी विश्वविद्यालयों की व्यवस्था प्रायः ठीक ही रहती है, लेकिन प्राइवेट विश्वविद्यालयों के संदर्भ में कुछ प्रतिष्ठित संस्थाओं या अपवादों को छोड़ दें तो ज्यादातर में घालमेल दिखाई देगा।

इस समस्या को देखते हुए बहुत पहले से यह मांग उठती रही है कि यूजीसी को शोध के लिए एक अलग पोर्टल विकसित करना चाहिए जिसमें सभी विश्वविद्यालयों के लिए यह अनिवार्य हो कि वे प्रवेश देते वक्त ही अपने शोधार्थियों का डेटा अपलोड करें। अभी तक यूजीसी यह कहकर पीछा छुड़ा लेती है कि उक्त डेटा संबंधित विश्वविद्यालय अपनी वेबसाइट पर अपलोड करेंगे। ध्यान देने वाली बात यह है कि रिसर्च पूरी होने के बाद, लेकिन डिग्री अवार्ड होने से पहले यूजीसी द्वारा सभी थीसिस को शोधगंगा रिजर्ववायर पर अपलोड किया जाना अनिवार्य बनाया गया है। यदि यही व्यवस्था शोधार्थियों के विवरण पर भी लागू कर दी जाए तो बैक डेट से रजिस्ट्रेशन और प्रवेश परीक्षा की खानापूर्ति पर तुरंत रोक लग जाएगी। भारत में इस समय प्रतिवर्ष लगभग 30 हजार शोध उपाधि प्रदान की जा रही हैं। विगत एक दशक में यह आंकड़ा लगभग डेढ़ गुना हो गया और जिस गति से संख्या बढ़ रही है, उस लिहाज से शोध की गुणवत्ता भी बढ़ी होगी, यह बात अभी प्रश्नचिह्न के घेरे में है।

शोध उपाधि में अपात्रों के प्रवेश और उन्हें डिग्री प्रदान किए जाने पर एक और तरीके से रोक लगाई जा सकती है। वो तरीका यह हो सकता है कि पीएच.डी. में कोई भी प्रवेश यूजीसी, सीएसआईआर, आईसीएआर के नेट अथवा प्रदेश स्तरीय सेट/स्लेट के आधार पर ही दिया जाए। इस पर यह सवाल उठ सकता है कि देश में प्रतिवर्ष उपलब्ध पीएच.डी. सीटों की संख्या के अनुरूप आवेदक नहीं मिलेंगे। इस सवाल का जवाब यह है कि वर्तमान में प्रतिवर्ष सभी संस्थाओं के नेट और राज्यों के सेट मिलाकर करीब एक लाख युवा पात्रता हासिल करते हैं। परोक्ष तौर पर ये सभी पीएच.डी. में प्रवेश के लिए भी पात्र हो जाते हैं। यह संख्या देश में उपलब्ध पीएच.डी. सीटों की तुलना में करीब तीन गुना है। और यदि इससे भी काम न चल रहा हो तो यूजीसी, सीएसआईआर, आईसीएआर के नेट में एक तीसरी श्रेणी पीएच.डी. प्रवेश हेतु बनाई जा सकती है। अभी तक इनमें केवल दो ही श्रेणी हैं। पहली, जेआरएफ-नेट और दूसरी केवल नेट। हरेक विषय में जेआरएफ और नेट के लिए अलग-अलग मेरिट बनती हैं। इसी क्रम में उक्त मेरिट का तीसरा हिस्सा पीएच.डी. – प्रवेश पात्रता का किया जा सकता है। इससे पीएच.डी. प्रवेश देने वाली संस्थाओं को अपेक्षित आवेदक मिल सकेंगे।

इस व्यवस्था का लाभ केवल फर्जीवाड़ा रोकने में ही नहीं होगा, बल्कि पीएच.डी. के इच्छुक युवाओं को जगह-जगह प्रवेश परीक्षा देने और उसके शुल्क का भुगतान करने से भी राहत मिलेगी। इन दो बातों को लागू करने (पहली, पंजीकरण के साथ ही शोधार्थी का सभी डेटा यूजीसी द्वारा निर्धारित पोर्टल पर अपलोड करने और दूसरी, नेट के माध्यम से पीएच.डी. प्रवेश-पात्रता की अनिवार्यता) से अगले दो से तीन सत्रों के भीतर पीएच.डी. उपाधि फर्जीवाड़ा काफी हद तक नियंत्रित हो जाएगा। संभव है, कुछ विश्वविद्यालय इस बदलाव पर सवाल खड़े करें और इसे अपनी स्वायत्तता के खिलाफ बताएं, लेकिन ऐसा इसलिए नहीं क्योंकि मेडिकल और इंजीनियरिंग आदि में सभी प्रकार के (सरकारी, प्राइवेट, डीम्ड, समकक्ष) विश्वविद्यालयों में राष्ट्रीय स्तर की परीक्षाओं से ही सीट आवंटित होती हैं। और वैसे भी पीएच.डी. के प्रवेश का साक्षात्कार संबंधित विश्वविद्यालय अपने स्तर पर ही लेंगे, इसलिए स्वायत्ता छीनने जैसे सवाल स्वतः ही गौण हो जाएगा।

एक अन्य प्रयास यह हो सकता है कि सभी राज्यों में प्राइवेट विश्वविद्यालय अपना कंसोर्टियम बनाकर खुद पीएच.डी. प्रवेश परीक्षा कराएं और इसमें सफल होने वालों का डेटा यूजीसी को भी भेजें ताकि किसी भी प्रकार की बैकडोर एंट्री को रोका जा सके। उच्च शिक्षा से वास्ता रखने वालों को याद होगा कि कुछ साल पहले तक प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों में कुछ प्रोफेसर एक वक्त में ही कई स्थानों पर खुद को कार्यरत दिखा देते थे। ऐसे मामले सामने आने के बाद मेडिकल कौंसिल ऑफ इंडिया ने सभी बायोडाटा अपलोड कराने शुरू किए और इस गोलमाल को लगभग नियंत्रित कर लिया गया। अब इसी प्रकार की मांग लाॅ और बीएड कॉलेजों को लेकर भी की जा रही है।

नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति में भारत सरकार ने गुणवत्तापरक शोध पर बार-बार जोर दिया है। मौजूदा स्थितियों में इस लक्ष्य को तभी हासिल किया जा सकता है जब यूजीसी की नींद खुले और उसे यह समझ में आए कि पीएच.डी. उपाधि की खरीद-फरोख्त एक बड़ा धंधा बन चुकी है। इस विमर्श में एक अन्य प्रश्न यह भी हो सकता है कि उपर्युक्त व्यवस्थाओं के लागू होने पर भी घोस्ट राइटिंग और ठेके पर थीसिस लेखन पर रोक नहीं लगेगी। यह बात काफी हद तक सच है, लेकिन यहां यह ध्यान रखना होगा कि पैसा देकर पीएच.डी. पाने की चाहत रखने वाले लोगों को बड़ी हद तक नेट की पीएच.डी. प्रवेश-पात्रता के स्तर पर ही रोक दिया जाएगा। चूंकि, अपात्रों के पास उपर्युक्त अर्हता नहीं होगी इसलिए थीसिस लेखन का धंधा भी नियंत्रण में आएगा ही।

इसका एक और समाधान यह है कि सभी शोधार्थियों की शोध प्रगति का विश्वविद्यालय स्तर पर हरेक तीन या छह माह में सार्वजनिक प्रस्तुतीकरण अनिवार्य किया जाए। (अच्छे स्तर की अनेक संस्थाओं में इस प्रकार की व्यवस्था पहले से ही लागू है।) वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए यह कहना गलत नहीं होगा कि पीएच.डी. के कारोबारीकरण को बढ़ावा देने में यूजीसी की अब तक की नीतियां भी जिम्मेदार रही हैं। विगत तीन दशक में असिस्टेंट प्रोफेसर की नियुक्ति में नेट की अनिवार्यता को लेकर यूजीसी ने जितनी बार यू-टर्न लिया है, वह हैरत में डालने वाला है। कभी नेट अनिवार्य हो जाता है और कभी वैकल्पिक। (अब एक जुलाई, 23 से पुनः अनिवार्य किया गया है।) जिन दिनों नेट वैकल्पिक होता है, उसी दौर में पीएच.डी. के कारोबार में उछाल आने लगता है।

यूजीसी द्वारा नियुक्ति की वर्तमान प्रक्रिया में मेरिट निर्धारण में पीएच.डी. के 30 अंक रखे गए हैं, जबकि नेट या नेट-जेआरएफ के आधार पर क्रमशः 5 एवं 7 अंक मिलते हैं। बात साफ है कि नेट की तुलना में पीएच.डी. का वेटेज छह गुना अधिक है। ये किस आधार पर इतना अधिक है, इसका कोई तर्क मौजूद नहीं है। यदि नियुक्ति प्रक्रिया में पीएच.डी. और नेट को बराबर अधिमान दिया जाता तो इससे भी फर्जीवाडे़ के मामलों में कमी आती और नेट परीक्षा की ओर रुझान बढ़ता। फिलहाल, यूजीसी की तरफ से ऐसा कोई संकेत नहीं है कि पीएच.डी. प्रवेश की वर्तमान व्यवस्था में कोई बदलाव आएगा। वर्ष 2022 के पीएच.डी. रेगुलेशन में भी ऐसा कोई प्रावधान मौजूद नहीं है, जिससे धंधेबाजी पर रोक लग सके। ऐसे में, यही मानकर चलना पड़ेगा कि यदि कोई आठ-दस लाख रुपये खर्च कर सकता है तो वह अपने विषय में मनचाहे टाॅपिक पर शोध उपाधि हासिल कर सकता है। वो भी एकदम घर बैठे हुए।

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