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मंथन

उत्तराखंड में क्षेत्रीय दल की क्रांति

यूकेडी का हाल देखकर तो उत्तराखंड में क्षेत्रीय दलों की प्रासंगिकता और संभावना पर ही सवाल उठने लगे हैं

देहरादून में उत्तराखंड क्रांति दल (यूकेडी) मुख्यालय पर दो दिन चले हंगामे, बाउंसरबाजी, कब्जेबाजी और तीन अलग-अलग सालाना अधिवेशन ने उत्तराखंड में एक अदद क्षेत्रीय दल की चाह रखने वाले लोगों को फिर मायूस किया है। राज्य आंदोलन के समय से ही लोगों के मन में अपना राज और अपनी पार्टी का शासन देखने की आकांक्षा पलती रही है। जैसे-तैसे 2000 में अपना राज्य तो मिल गया, लेकिन अपनी पार्टी का सपना अब तक पूरा नहीं हो पाया है। यूं समझे कि जैसे बड़े संघर्ष के बाद किसी बेरोजगार की नौकरी तो लग गई, लेकिन मनपसंद साथी से विवाह की हसरत अधूरी है (भाजपा-कांग्रेस के साथ तो किसी तरह निभा भर रहे हैं)

वैसे तो उत्तराखंड बनने से बहुत पहले ही क्षेत्रीय दल वजूद में आ गया था। उत्तराखंड क्रांति दल ने पृथक राज्य की मांग को जन आन्दोलन का रूप देने में अहम भूमिका निभाई। लेकिन 2002 में हुए उत्तराखंड के पहले विधानसभा चुनाव में चार सीटें जीतने वाली यूकेडी 2022 में जीरो साइट और एक फीसदी से भी कम वोटों में सिमट गई है। आंतरिक गुटबाजी, संगठन में कलह और लीडरशिप की खामियों का आलम यह है कि यूकेडी अपना सामाजिक प्रभाव भी खत्म करती जा रही है। कभी कांग्रेस तो कभी बीजेपी के पिछलग्गू बनने की वजह से भी यूकेडी के राजनीतिक विकल्प बनने की संभावनाओं को झटका लगा।

पहले ही दिन से इस क्षेत्रीय दल की गतिविधियां ऐसी रही हैं कि उसके प्रति भावनात्मक लगाव होने के बावजूद, उसे विकल्प के रूप में आजमाना भी मुमकिन नहीं हो पाया। इसे पुन: इस तरह देखें कि वो एक ऐसी दिलरुबा है, जो दिल को तो भाती है, लेकिन दिमाग उसे खारिज कर रहा है। इस तरह यह टीस दो दशक बाद तक बरकरार है। इसलिए हमें उत्तराखंड में एक क्षेत्रीय दल की संभावनाओं पर फिर विचार करने की जरूरत है।

उत्तराखंड से बाहर देखें तो जहां भी क्षेत्रीय दल ताकत बनकर उभरे हैं वो क्षेत्रीय आकांक्षाओं के साथ-साथ किसी एक नेता या समुदाय के इर्द-गिर्द केंद्रित हैं। पंजाब के अकाली दल, झारखंड के झाझुमो और तमिलनाडु की द्रविड पार्टियां की तरह स्थानीय मुद्दों और क्षेत्रीय अस्मिता को लेकर आगे बढ़ने की भारतीय राजनीति में पर्याप्त गुंजाइश है। लेकिन राज्य आंदोलन से जुड़ाव के बावजूद यूकेडी स्थापित क्षेत्रीय दलों की तरह व्यवहार नहीं कर पाई। ना ही क्षेत्रीयता से जुडी अपनी पहचान को भुना पाई। बल्कि यूकेडी का हाल देखकर तो उत्तराखंड में क्षेत्रीय दलों की प्रासंगिकता और संभावना पर ही सवाल उठने लगे हैं।

पड़ोसी राज्य और समान भूगोल वाले हिमाचल की तरफ देखें तो पंडित सुखराम ने 1996 में कांग्रेस से बगावत कर हिमाचल विकास कांग्रेस बनाई थी, जिसे आंशिक सफलता भी मिली। लेकिन चूंकि यह पार्टी भी एक नेता पर ही निर्भर थी, इसलिए जल्द ही सुखराम को कांग्रेस में वापसी करनी पड़ी। हिमाचल का मिजाज, उत्तराखंड के मुकाबले ज्यादा क्षेत्रीय आकांक्षाओं को पोषित करने वाला है। जब वहां क्षेत्रीय दल नहीं उभर पाए तो उत्तराखंड में क्षेत्रीय दलों का उभार कैसे संभव है, यह बड़ा सवाल है। यह भी नहीं भूलना चाहिए कि उत्तराखंड में अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी भी लगातार कोशिशों के बावजूद अपना खाता भी नहीं खोल पाई। जबकि आप के पास चेहरा, प्रचार और संसाधन थे। तो क्या समझा जाए? उत्तराखंड में क्षेत्रीय दल या तीसरी ताकत का उभार संभव ही नहीं है?

वैसे हिमाचल ने जो भी तरक्की की है, वो भाजपा-कांग्रेस के बूते ही की है। हिमाचल से यह सबक तो सीखा ही जा सकता है कि दलों से ज्यादा फर्क नहीं पड़ता, दलों के अंदर क्षेत्रीय आकांक्षाओं को समझने वाले लोग हों यह ज्यादा महत्वपूर्ण है। फिर भी उत्तराखंड में एक तीसरे विकल्प और क्षेत्रीय दल की जरूरत तो महसूस होती रहेगी।

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