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मंथन

“प्रधानमंत्री द्वारा किसानों की आय दोगुनी करने का वादा निश्चित रूप से वायदों का स्कैम हैं।”

खेतों में पसीना बहाने वाले किसानों को जब भी अपनी पीड़ा समझाने के लिए आँकड़ों की कमी पड़ती है तो उन्हें सहारा देते हैं पूर्व सांसद, केंद्रीय कृषि मंत्री और योजना आयोग के सदस्य सोमपाल शास्त्री। आँकड़ों को उँगलियों पर रखने वाले सोमपाल शास्त्री आर्थिक नीतियों में व्याप्त भ्रष्टाचार की परतों को न सिर्फ़ उधेड़ने में माहिर है बल्कि इसमें शामिल लोगों को वो बिना किसी भय के जन-दरबार में खड़ा कर देते हैं। 

सोमपाल शास्त्री से कृषि, राजनीति और अर्थनीति पर स्तंभकार और कर्म कसौटी, लखनऊ की ब्यूरो चीफ़ वंदिता मिश्रा ने कार्यक्रम ‘द गोल्डन आवर एक्सट्रा’ में विस्तार से चर्चा की

वंदिता मिश्रा: जब अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने नेशनल कमीशन ऑफ फार्मर्स (राष्ट्रीय कृषक आयोग) बनाने का निर्णय लिया, तो आपको उसमें कृषि मंत्री की हैसियत से अध्यक्षता करनी थी। प्रधानमंत्री की इच्छा थी कि यह आयोग संवैधानिक संस्था के रूप में हो और इसे भी CEC और CVC जैसे अधिकार प्राप्त हों, परंतु जब 10 फरवरी, 2004 को कृषि मंत्रालय की अधिसूचना जारी हुई, तो इस आयोग को संवैधानिक दर्जा नहीं दिया गया। क्या ये इसलिए नहीं बना क्योंकि किसी का दबाव था?

सोमपाल शास्त्री : मैं कृषि मंत्री 1998-99 के काल में था। 99 का लोकसभा चुनाव हारने के बाद मैं सदस्य (पूर्णकालिक) योजना आयोग था और साथ ही 12वें वित्त आयोग का सदस्य (अंशकालिक) था। उस समय कृषक आयोग की नियुक्ति साधारण आयोग के रूप में हुई थी और उसका दो वर्ष का कार्यकाल था। 10 फरवरी को 12वां वित्त आयोग, करों का आवंटन इत्यादि की व्यवस्था का अध्ययन करने के लिए ऑस्ट्रेलिया के दौरे पर जा रहा था। तो रात में 9 फरवरी, 2004 को मेरे पास फोन आया, प्रधानमंत्री जी स्वयं फोन पर थे, उन्होंने कहा कि एक महत्वपूर्ण फ़ाइल है उसे मैं भेज रहा हूँ, उस पर हस्ताक्षर करके जाना, मैंने सुना है कि कल सब लोग ऑस्ट्रेलिया जा रहे हो। जब वो फ़ाइल मेरे पास आई तो मैंने देखा कि उसमें मेरी नियुक्ति अध्यक्ष के तौर पर थी, और दो वर्ष का कार्यकाल था। उस वक्त मैंने प्रधानमंत्री से कहा कि यह चर्चा का विषय बना हुआ है कि मेरे चुनाव हार जाने के बाद भी आपने दो पदों पर मेरी नियुक्ति कर दी है, पार्टी में कुछ लोग हैं जिनकी महत्वाकांक्षा रहती है, और आपकी भी और मेरी भी आलोचना हो रही है इस बात पर। ऊपर से आप तीसरा और एक पद मुझे दे रहे हैं। किसी और को ये पद दे देते तो अच्छा रहता मेरी जो विशेषज्ञता है, नीति इत्यादि में उसमें मैं कमीशन की मदद कर दूंगा। उस पर उन्होंने बड़ी विचित्र बात कही, उन्होंने कहा “आप ही कोई दूसरा नाम बता दें; जो इस विषय को इतना समझता हो, तो हम उसको नियुक्त कर देंगे” तो मैं निरुत्तर हो गया, उसके बाद मैंने हस्ताक्षर करके उसे भेज दिया। और दूसरी बात मैंने इससे भी पहले ये कही कि साहब कृषि से संबंधित जितने भी मुद्दे हैं, विभिन्न कार्यक्रमों के, योजनाओं के, तो अब सन सैंतालीस और पचास के दशक का समय नहीं है कि लोग कृषि और उससे संबंधित मुद्दों को ठीक से समझते नहीं है, अब देश की और नीति-निर्माताओं की समझ तब से काफी विकसित हो चुकी है, इसलिए जैसे-जैसे विभिन्न योजनाओं और कार्यक्रमों के संसाधन होंगे हम उसी हिसाब से उसे क्रियान्वित करते रहेंगे, कृषि के विषय पर किसी आयोग की स्थापना करना ऐसा होगा जैसे हम आयोग की रिपोर्ट आने तक मामले को स्थगित करने का प्रयास कर रहे हैं। मैंने कहा कि अनावश्यक दो साल का विलंब होगा, उन्होंने उसके दो जवाब दिए और कहा कि मैं तुम्हारी बात से सहमत हूँ, परंतु पिछले 15 अगस्त को लाल किले से मैं यह घोषणा कर चुका हूँ कि हम एक कृषक आयोग (राष्ट्रीय कृषक/किसान आयोग) बनाएंगे, अब सार्वजनिक प्राचीर से वचन दिया है तो उसका निर्वाह तो करना ही होगा, जहां तक विलंब का सवाल है तो जब आप अध्यक्ष बन जाएंगे तो जो-जो संस्तुतियां भेजते रहेंगे हम एक-एक करके उनको लागू करते रहेंगे। हम ये प्रतीक्षा नही करेंगे कि उसकी अंतिम रिपोर्ट दो वर्ष बाद आए और फिर उस पर विचार हो। तो ये बात हुई थी।    

वंदिता मिश्रा: क्या यह संस्था (राष्ट्रीय कृषक आयोग) संवैधानिक संस्था के रूप में होती तो आज देश के किसान जिस क्राइसिस से गुजर रहें है वो गुजरते?

सोमपाल शास्त्री : नहीं, समस्या कम होतीक्योंकि जो संवैधानिक अधिकार प्राप्त आयोग होता है उसकी सिफारिशें सरकार के ऊपर बाध्यकारी होती हैं। तो वैसा होता तो ज्यादा कारगर होता, हालांकि मंत्रालय के अधिकारी हैं जो इस काम को कर रहे हैं वो एक संवैधानिक संस्था और एक स्वशासी संस्था के निर्माण से अंकुश महसूस करते हैं, वो नहीं चाहते कि ऐसा बने; पर इसके पीछे क्या कहानी रही ये जानकारी मुझे नहीं है। 

वंदिता मिश्रा: विश्व व्यापार संगठन और भारतीय किसानों के हितों में कोई विरोधाभास है क्या, यदि विरोधाभास है तो भारत अर्थात किसानों का देश, उसमें सरकार के निर्णय किसानों की ओर झुके हुए क्यों नही होते? और यदि विरोधाभास नहीं है तो कभी उदारवादी कृषि संगठन और कभी सरकार डब्ल्यूटीओ की ओट लेकर क्यों छिप जाती है? मैं इसे किसानों का देश इसलिए कह रही हूँ क्योंकि इसकी 60% आबादी की आजीविका कृषि पर निर्भर है और सकल घरेलू उत्पाद में 18% अंशदान कृषि से ही आता है।

सोमपाल शास्त्री: वंदिता जी एक आंकड़ा आपने दिया की कृषि पर जनसंख्या का जो प्रतिशत आधारित है वह 60% के करीब है और आज की तारीख में भी पूरे भारत की जो कार्मिक शक्ति का 45% है सीधे खेती में रोजगार पाता है, तो जिस राष्ट्र की 60% आबादी आज भी खेती के ऊपर आधारित हो उस देश की खेती में समृद्धि आना 60% लोगों की समृद्धि से सीधे जुड़ा सवाल है। दूसरा एक आंकड़ा आपने और दिया कि इसका योगदान सकल घरेलू उत्पाद में 18% है तो उत्पाद में जो इस का योगदान है यह भी एक किस्म का षड्यंत्र है। असल में किसानों की अनदेखी हुई है और यह जो अंशदान हैं, जो प्रतिशत है इसे जानबूझकर घटाया गया है। यह जानबूझकर बनाई गई मूल्य नीति के कारण है और ये बात हमारी अर्थशास्त्र की चर्चा में कहीं प्रकट भी नहीं होती! आपने देखे होंगे जितने भी अर्थशास्त्र के ऊपर लेख आते हैं मैगजींस में या अखबारों में सरकारी वक्तव्य आते हैं बजट में इन सब में; इस बात पर किसी ने ध्यान नहीं दिया है। मैं अकेला व्यक्ति हूं संभवत जो इस बात को उठाता रहा है, जो किसान का ‘मूल्य का ग्राफ’ था वह अगर एक एंगल पर चला तो दूसरी वस्तुओं का उससे तेज गति से चला अगर उस वक्र को आप खींचेंगी तो पता लगेगा कि यह जो गैप है लगातार बढ़ता जा रहा है! तो इस तरह से कृषि के उत्पादों का जानबूझकर कीमत कम रखकर उसके योगदान की कीमत कम लगाई जा रही है। अगर व्यापार दरों या सापेक्ष दरों में सुधार कर दिया जाए अर्थात टर्म्स ऑफ ट्रेड में करेक्शन हो तो आज भी कृषि का जीडीपी में योगदान 30-35% से कम नहीं होगा। जिस विरोधाभास की बात आप कर रही हैं उस पर मैं आपको बताता हूँ, डब्ल्यूटीओ में यह हुआ कि जो पश्चिमी राष्ट्र थे खासतौर पर अमेरिका क्योंकि अमेरिका के पास खेती के लायक जमीन का बड़ा भूभाग है परंतु जनसंख्या कम है और वहां की तकनीकी भी बहुत उन्नत है पर उनको अपने कृषि के उत्पादों को अंतर्राष्ट्रीय बाजार में बेचने में कठिनाई आती है। इसलिए भारत जैसे और जो राष्ट्र थे उन्होंने मात्रात्मक प्रतिबंध लगा रखा था – जिनको ‘क्वांटिटेटिव रिस्ट्रिक्शन’ कहते हैं। अमेरिका जैसे देश दबाव डाल रहे थे कि आप अपने व्यापार को खोलें, नहीं तो हम भी आपके आयात को बाधित करेंगे। WTO का कार्य यह था कि जिस देश में सस्ता कच्चा माल है वो दूसरे में चला जाए और दूसरे का किसी अन्य में। लेकिन पता यह चला कि अमेरिका और यूरोप हम से कई गुना ज्यादा सब्सिडी सहायता के रूप में अपने किसानों को देते थे। 1986 में इसके ऊपर बहुत गंभीर चर्चा हुई। इन चर्चाओं को ‘उरुग्वे दौर की वार्ता’ के नाम से जाना जाता है। भारत की ओर से वीपी सिंह ने भारतीय डेलिगेशन का प्रतिनिधित्व किया था। उन्होंने अर्ध विकसित और विकासशील देशों को जोड़ कर एक लॉबी बनाई ताकि अमेरिका और यूरोप जैसे देशों को काउंटर किया जा सके। बातचीत के दौर के बाद इतना ज्यादा दबाव बढ़ा कि डब्ल्यूटीओ के चार्टर में बाजार खोलने संबंधी बातों को जगह दे दी गई और 1996 से इसे लागू कर दिया गया। 2000 में हमें मात्रात्मक प्रतिबंधों को कम करना पड़ा। अगर वर्तमान परिदृश्य को देखें तो आज भी $67,000 यानी 45-46 लाख रुपया प्रति किसान सब्सिडी अमेरिका की फेडरल सरकार किसानों को देती है और अगर आप यूरोप में जाएं तो मैंने स्विस मॉडल देखा है, वहां पर 2993 यूरो अर्थात ढाई लाख प्रति हेक्टेयर की सब्सिडी दी जाती है यानी एक लाख रुपये प्रति एकड़ सब्सिडी। जबकि हमारे यहां किसान को ₹6000 प्रति किसान प्रति वर्ष मिल रहा है। इस तरीके से देखें तो कोई बराबरी नहीं और जिन्हें आप कहते हैं उदारवादी, वह असल में उदारवादी नहीं हैं, वह पूंजीपतियों के, कॉरपोरेट सेक्टर के, वकील हैं। आम आदमी को, पत्रकार को, समीक्षक को, यह जानकारी है ही नहीं इसीलिए हम कहते हैं कि या तो आप स्विस या अमेरिकन मॉडल अडॉप्ट कीजिए या फिर जापान वाला मॉडल है जिसमें वह अपने धान को 78% सब्सिडी आज भी देते हैं। वो तो कहते हैं कि खाद्यान्न की सुरक्षा का सवाल आर्थिक सुरक्षा का सवाल नहीं है राष्ट्रीय सुरक्षा का सवाल है, क्योंकि द्वितीय विश्वयुद्ध के समय भारत और जापान ने जो महसूस किया, भुखमरी की हालत हो गई थी। जिन्हें हम उदारवादी कहते हैं वो सब उस सिस्टम के बिके हुए हैं, चाहे वो इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट में हों, चाहे इंटरनेशनल वाटर मैनेजमेंट इंस्टिट्यूशन में हों- जैसे- नाम के लिए डॉक्टर अशोक गुलाटी वगैरह। ये वहां रहे हैं और बस मोटी-मोटी तनख्वाह पाते रहे, ये जो भी रिसर्च करते हैं उसमें बात किसान की करेंगे और जब निष्कर्ष में नीतिगत सुझाव देते हैं तो वो सारे उद्योगपतियों के हितों के होते हैं।

वंदिता मिश्रा: किसान आंदोलन के छह महीने हो गए और सरकार कोई दबाव महसूस नही कर रही है। क्या चुनाव में MSP मुद्दा नहीं बनेगा? MSP इतना डाइसी (संदिग्ध) मुद्दा तो नहीं है जिसे भारत का किसान समझता नहीं है। कोई अंधा बहरा गूंगा किसान भी होगा और उससे भी पूछा जाएगा कि अपने अनाज का दाम 1000 चाहिए या 1500 चाहिए? तो वो 1500 ही बोलेगा। 60% आबादी की आजीविका कृषि ही है और वो वोट भी करती है ऐसे में आज की सरकार उनसे क्यों नहीं डरती?

सोमपाल शास्त्री: वंदिता जी, इन कानूनों को अध्यादेश के माध्यम से लाया गया और फिर इसे संसद में पारित करवा लिया गया, जबकि अध्यादेश लाने की कोई अपरिहार्यता नहीं थी। एक संसदीय प्रणाली को तिरस्कृत और बाइपास करके इस कानून को पारित करवाया गया। प्रधानमंत्री के स्तर पर यह कहा गया कि हम पहली बार किसानों को इन कानूनों के माध्यम से आजादी दे रहे हैं। जैसे पहले वो गुलाम था, जबकि ऐसे कानूनों की बातें पिछली सरकारों ने किया तो इन्होंने हमेशा विरोध किया। अब आकस्मिक किसान प्रेम कहाँ से जाग गया? राज्यसभा में पीठासीन अधिकारी से कहकर वोटिंग न करवाकर सिर्फ ध्वनिमत का इस्तेमाल करवाया। इन कदमों से यह निष्कर्ष निकलता है कि सरकार अन्य आवाजों को सुनने के लिए तैयार ही नहीं थी। उसने निश्चय कर लिया था कि यह कानून किसी भी हालत में पारित कराना है, जो होगा देखा जाएगा। अब किसान आंदोलन हो गया। शुरु में इनके ऊपर दबाव बना, पर फिर इन्होंने सोचा कि किसान थककर हारकर चले जाएंगे, कुछ संख्या कम हुई तो जोर जबरदस्ती करके आंदोलन को समाप्त करा देंगे, पर ये आंदोलन और व्यापक होता गया। फिर ये घबरा गए और सोचा कि अब जोर जबरदस्ती नहीं करेंगे। चूंकि मैं नीति निर्धारण का अंतरंग भाग रहा हूँ इसलिए मैं निश्चित ही कह सकता हूँ कि यह अंतर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय कॉर्पोरेट लॉबी के हितसाधन के लिए लाया गया कानून है। इससे कालांतर में खेती में कॉर्पोरेट जगत का इनवेस्टमेंट और उनके पास जमीनों के अधिकार जाने की प्रक्रिया शुरू हो जाएगी और ये कहेंगे कि हमने किसान को आजादी दी है। MSP की बात किसानों ने आंदोलन के शुरुआत में नहीं की थी, वो कहते थे-कानूनों को वापस ले लो। मान लीजिए सैद्धांतिक रूप से यह कानून वापस हो भी जाएं तो खाली वापसी से तो किसानों की स्थिति नहीं सुधरेगी। खरीदी कोई व्यापारी करे ,पूंजीपति करे या कोई अंतर्राष्ट्रीय व्यापारी करे या स्वयं सरकार करे। किसान के तौर पर हमारी जो चिंता है वह तो ये होनी चाहिए कि किसानों को एक उचित लाभकारी मूल्य मिले। और जो न्यूनतम समर्थन मूल्य है वो सिर्फ लागत को ही न पूरा करे बल्कि लाभकारी मूल्य मिले। किसानों ने नहीं समझा पर  सरकार का छिपा हुआ अजेंडा ये है कि किसान, मजदूर वर्ग बन जाएँ और व्यापारियों को लाभ पहुंचे। कोई खरीदे हमें दिक्कत नहीं है पर आप हमें संवैधानिक गारंटी दीजिए कि प्रत्येक वस्तु(स्टोर किये जाने वाली और खराब हो सकने वाली) का लाभकारी मूल्य मिलेगा। जब मैंने और अन्य साथियों ने किसानों से बात की तो बाद में किसानों ने अपनी मांग में MSP को शामिल कर लिया और सरकार को यह वक्तव्य देना पड़ गया कि ‘MSP थी, है और रहेगी’ जबकि MSP मुख्यतया धान और गेंहू और कुछ जिंसों पर मिलता है,और यह पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश मध्यप्रदेश के कुछ किसानों को ही प्राप्त है। 1990 में भानुप्रताप कमेटी की सिफारिश में कहा कि CACP को संवैधानिक दर्जा दिया जाए और लागत आँकलन का फार्मूला वही हो जो उद्योग धंधों के मामले में इस्तेमाल किया जाता है। चूंकि वो संवैधानिक होगा इसलिए उसकी सिफारिशें सरकार पर बाध्यकारी होंगी। ये बातें किसानों ने बाद में कहना शुरू किया; तो सरकार को ये बहाना मिल गया कि आप तो कानून की बात कर रहे थे, जो मनोवांछित संशोधन है वो बड़ी बारीक बात है। वो किसानों की शुरू की मांग को पकड़कर लगातार बच रही है। शांताकुमार कमिटी का तर्क दिया जाता है कि 7-8% किसान ही MSP को ले कर बैठ जाते हैं। ये सरकार की असफलता है उनकी संवेदनहीनता है कि वो सब किसानों को नहीं देते। इसमें किसानों का दोष नहीं है, किसान के तौर पर हमें ये मांग करनी चाहिए थी कि ये जो मूल्य हैं वो सार्वभौमिक हो और उसका लागत मूल्य उद्योग धंधों के फॉर्मूले के समकक्ष हो, ये किसानों ने बाद में किया, ये मिसमैच है सरकार और किसानों के बीच में।    

वंदिता मिश्रा: 2013 में सपा प्रमुख श्री मुलायम सिंह यादव कोपत्र लिख कर आपने बाग़पत से चुनाव लड़ने मे असमर्थता जताई थी और कारण बताया था मुजफ्फरनगर दंगे जिसमे शामली भी शामिल था। आपको नही लगता आप जैसे आभावान व्यक्ति का राजनीति में होना जरूरी था शायद आप संसद मे बैठते तो कानूनों को बनाने की प्रक्रिया को प्रभावित कर सकते थे?

सोमपाल शास्त्री: देखिए, राजनीति और नैतिकता को कोई अलग करके देख रहा है यह बड़े दुर्भाग्य की बात है और यह एक सार्वभौमिक सत्य भी है, यह सिर्फ यहीं की बात नहीं है पूरे विश्व में ऐसा होता है। अब राजनीति केवल पद प्राप्ति के लिए की जाती है, उसका जो कर्तव्य है, कोड ऑफ कंडक्ट है, जो नैतिक पक्ष है उसको छोड़ दिया जाता है। राजनीति में सफलता इस बात से आंकी जाती है कि कौन व्यक्ति कितने बड़े पद पर गया। मेरा मानदंड यह रहा है कि राजनीति का इससे बड़ा पक्ष यह है कि आप जिस पद पर गए हैं, उस पद से जनता की सेवा और जनहित के लाभ की जो अपेक्षा आप से की जाती है उस कसौटी पर आप कितने खरे उतरते हैं। मैंने मना इसलिए किया मैं यह बताना चाहता हूं; 2012 में मैं और मेरे पंजाब के मित्र एक्स चैंपियन गुरुचरण सिंह जी संसद की इनर लॉबी में बैठे हुए थे, श्री मुलायम सिंह जी वहाँ से गुजरे हमने नमस्ते किया वो नेता भी बड़े हैं और उम्र में भी बड़े हैं,तो हम खड़े हो गए, वो आगे निकल गए और वापस मुड़ के आए और मेरा हाथ पकड़ कर के बोले कि आप चुनाव लड़ो। मैंने कहा जी, मैं कहां से चुनाव लड़ूँ? बोले आप बागपत से लड़ो; मैंने कहा 2009 में आपसे निवेदन, अनुनय किया था, आप उस समय मुझे अपना प्रत्याशी बनाते तो मैं चुनाव जीत जाता, आपने मुझे हां भी कर दी थी पर बाद में-वहां के एक नेता है कोई स्थानीय वो बहुत मुंह लगे थे, नाम लेना उचित नहीं होगा, उन्होंने इन के यहां जाकर छाती पीटी अपना सिर मेज में मार दिया और कहा कि आपने मुझे प्रॉमिस कर रखा था-और आपने  मुझे छोड़ कर उनको टिकट दिया और वह 45600 वोट लेकर जमानत जब्त करवा लिए। अब आप अकस्मात मुझसे पूछ रहे हैं जब चुनाव आने में करीब डेढ़ साल बाकी हैं। मैं किसानों का या जाटों का जैसे चौधरी चरण सिंह जी थे या चौधरी देवीलाल जी थे या आप रहे हैं, उतना बड़ा नेता तो नहीं हूँ, मुझे  अपनी हैसियत मालूम है; मुझे काम करना पड़ेगा। बोले नहीं आप लड़ो, मैंने विचार विमर्श में 15-20 दिन का समय लिया, रेवती रमन सिंह, मित्र पत्रकार शंकर सोहेल इत्यादि से परामर्श किया और सहमति दे दी और उन्होंने मेरा नाम घोषित कर दिया मैंने अपना चुनाव अभियान शुरू कर दिया। 431 गांव और कस्बे हैं मेरे बागपत के क्षेत्र में, मेरे पिताजी श्री रघुवीर सिंह शास्त्री जी यहां से निर्दलीय सांसद रहे और 88000 वोट से जीते थे, 1967 से हमारे परिवार का बहुत संपर्क है, मैंने लगभग 311 गाँव कस्बे कवर किये थे, उस समय ये मुजफ्फरनगर की घटना हुई। पुरबालियान गांव, कव्वाल गांव, नगला गाँव में कुछ हिंसा की घटनाएं हुईं। निष्कर्ष ये है कि मुजफ्फरनगर और शामली के बहुत से गांवों के अल्पसंख्यक समुदाय के लोग गांव छोड़कर भागने को विवश हो गए, शामली और मुजफ्फरनगर और हमारे जनपद बागपत की, सीमावाले  क्षेत्र के गांव से बहुत संख्या में बहुत सारे लोगों को पलायन करना पड़ा और एक गाँव है किरथल वहाँ से तो 1200 से 1500 लोग अपने गांव से ट्रैक्टरों में ट्रॉलियों में सामान भरकर जा रहे थे, सांप्रदायिक विद्वेष की भावना फैल चुकी थी, मुलायम सिंह जी की पार्टी शासन में थी, जो बेकसूर लोग थे खासकर हमारे जाति के जाट (नवयुवक) समुदाय के लोग उनको पकड़ कर के राष्ट्रीय सुरक्षा कानून (NSA) के तहत नजर बंद कर दिया गया, मुझे अंदेशा हुआ कि मुलायम सिंह जी को शायद यह लग रहा है कि जितना अल्पसंख्यक दबाव में आएंगे उतना बीजेपी से अलग हटकर इकट्ठे होकर के तुम्हारा वोट बैंक बढ़ेगा और भारतीय जनता पार्टी को यह लगा कि जितना सांप्रदायिक विद्वेष होगा उतना हिंदू वोट संगठित होगा, जो कि बहुसंख्यक वोट है। मैं 7 दिन तक लगातार मुलायम सिंह जी को अखिलेश जी अपने साथी रामगोपाल यादव जो मेरे साथ 8 साल राज्यसभा में रहे और कुछ अधिकारियों को फोन पर बात करके बात कहना चाहता था कि इसको ठीक से देखा जाए; जो निर्दोष लोग पकड़े जा रहे है उनके केस को देखा जाए और जो अल्पसंख्यकों पर दबाव पड़ रहा है उसको कैसे रोका जाए उसको कम करें, पर उनकी तरफ से उत्तर नहीं मिला। 7 दिन बाद मैंने अपनी पत्नी को फोन किया, अपने कार्यालय (जोरबाग़) दिल्ली में बैठा हुआ था, उन्होंने पूछा क्या मन है? मैंने कहा मेरा मन है कि मैं इस अवस्था में चुनाव ना लड़ूँ तो उन्होंने कहा कि आपने मन बना लिया है तो किसी से परामर्श ना करिए छोड़ दीजिए। उसी समय मैंने चिट्ठी टाइप की और इस उत्तरदायित्व से मुक्त होने की बात कही और पत्र लिख कर छोड़ दिया। जो आप कह रही हैं कि वहां (संसद) बैठते, इस खून खच्चर की जो राजनीति थी  उसके ऊपर जाकर अगर मैं चुनाव जीत भी जाता तो कभी मन से अपने आप को माफ नहीं कर पाता, मेरी अंतरात्मा का अनुभव था, और मैंने वह निर्णय किया और मुझे आज भी उसका कोई खेद नहीं और अकेले संसद में एक व्यक्ति जाए और कुछ बोल कर, कोई भूमिका अदा कर देगा यह भी बड़ी गलतफहमी है.

वंदिता मिश्रा: आपने साठ के दशक में अर्थशास्त्र से बीए और एमए ऑनर्स किया। आपकी भारत के बड़े और प्रतिष्ठित बुद्धिजीवियों मे गिनती होती है। आपने योजना आयोग, कृषि मंत्रालय (स्वतंत्र प्रभार), जल संसाधन मंत्रालय का चार्ज लिया पर इतने सबके बावजूद एक वक़्त के बाद आपमें एक राजनैतिक उदासीनता क्यों आ गई?

सोमपाल शास्त्री: जी नहीं! देखिए, ऐसा है कि पहले जब मैं संसद में गया तो जनता दल के टिकट पर 90 में चुना गया था 2 साल की अंशकालिक रिक्ति के ऊपर और 92 में फिर 6 वर्ष के लिए चुना गया तब मैं विश्वनाथ प्रताप सिंह जी का सहयोगी था और उनके ही टिकट पर चुना गया था। जब उन्होंने राजनीति छोड़ दी और जनता दल का विघटन हो गया तब जनता दल में कोई ऐसा नेता भी नहीं रहा जो विश्वनाथ प्रताप सिंह जी की तरह मुझे प्रेरित और उत्साहित कर सके। तो मैंने ये निर्णय कर लिया था 8 वर्ष राज्यसभा में रहने के बाद मैं राजनीति से अलग हो जाऊं, परंतु श्री विश्वनाथ प्रताप सिंह जी ने ही मुझ से आग्रह किया कि आप राजनीति में रहिये। मैंने फिर उनसे कहा कि जब से आपने मंडल कमीशन लागू किया है, तब से हमारी जो जाति है (जाटों की) वो उससे बाहर रह गई वो इस बात से बहुत आपसे क्रुद्ध है, क्षुब्ध है। और चूंकि मैं आपका निकट सहयोगी हूँ इसलिए मुझे भी आपके टिकट पर उसका नुकसान होगा और चुनाव के जीते बगैर आगे राजनीति में सरवाइव करना बड़ा असंभव है। अब कोई ऐसा दल भी नहीं जहां मेरी ये अवस्था हो कि मुझे कोई राज्यसभा में ले आए; तो उन्होंने कहा, फिर भी आप विकल्प देखिए। उस समय मैं संसद में ही था। मेरे पिताजी का आर्यसमाज से बड़ा निकट का संबंध था, वो उसके शीर्षस्थ नेता रहे भारत के गुरुकुल कांगड़ी के कुलपति भी रहे। सार्वदेशिक सभा के 3 वर्ष तक महामंत्री रहे तो, संघ और बीजेपी के लोग मेरे परफ़ोर्मेंस, आचरण और मेरे व्यवहार को देख कर खुद से बड़ी निकटता महसूस करते थे; करीब पूरा शीर्षस्थ नेतृत्व मेरे पीछे 1993 से लगा था कि आप हमारे साथ आएँ। मैंने विश्वनाथ प्रताप सिंह जी से कहा कि अगर मुझे राजनीति में रहना है तो चुनाव लड़ना पड़ेगा; और चुनाव लड़ना है तो पश्चिम यूपी में एक ही संभावना है कि मैं भारतीय जनता पार्टी से लड़ूँ; लेकिन पार्टी की धर्मांधता और सांप्रदायिकता के कारण ना उसे आप पसंद करते हैं ना मैं। उन्होंने कहा कि नहीं अगर वह आपको चुना कर ला सकते हैं, तो मैं उनका अभिनंदन करता हूं। मैंने कहा कि भाजपा के लोग तो मेरे पीछे पड़े है, माननीय आडवाणी जी, जोशी जी, कुशाभाऊ ठाकरे जी, सिकंदर बख्त साहब, सुषमा स्वराज जी, रामदास अग्रवाल जी, वेदप्रकाश गोयल जी, विष्णु कांत शास्त्री जी और खासतौर से सुंदर सिंह भंडारी, जो यूपी के प्रभारी थे। ये सब 20-21 लोग थे और भैरोसिंह शेखावत जी, सभी मुझे पसंद करते थे। फिर मैंने यह निर्णय किया कि चुनाव लड़ूंगा। मैंने 1997 में, जब मेरे राज्यसभा कार्यकाल में से 1 वर्ष से कुछ कम का समय बचा था, तो पहले राज्यसभा से इस्तीफा दिया फिर जनता दल से और भाजपा में मिला। मैंने कहा कि मैं बागपत से चुनाव लड़ूँगा पर शर्त ये है कि बागपत में हमारा और लोकदल का विरोध रहता है, तो उनसे अगर कभी समझौता करना है तो मैं पार्टी में नहीं रहूंगा। मेरी शर्त मान ली गईं। मैं 98 का चुनाव लड़ा और सफल हो गया और कृषि राज्य मंत्री बना, मैं पूरा कैबिनेट मिनिस्टर नहीं था परंतु मेरी स्थिति कैबिनेट मिनिस्टर से बेहतर थी, क्योंकि प्रधानमंत्री ने कृषि विभाग को अपने पास रखा हुआ था और आज जिस कृषि मंत्रालय में कुल मिलाकर 11 और 12 मंत्री और राज्य मंत्री हैं उन सबका काम अकेले मैं देखता था, वाजपेयी जी के अंतर्गत। तो मैं सीधे प्रधानमंत्री से सम्बद्ध रहा, और जो भी योजना, प्रस्ताव या नीति बनाने की बात मंत्रिमंडल में होती थी तो मैं सीधा प्रधानमंत्री से चर्चा करके उनको विश्वास दिलाकर कि ऐसे ऐसे उचित होगा; तो वो फिर कैबिनेट में रुकता नहीं था। उस 13 महीने 7 दिन के छोटे से कार्यकाल में ऐतिहासिक काम हुए, जिसमें किसान का क्रेडिट कार्ड, चीनी मिलों को लाइसेंस प्रणाली से मुक्ति, दुग्ध प्रसंस्करण- जिसके लिए लाइसेंस लेना पड़ता था को समाप्त किया, गेहूं की एमएसपी 19.6% बढ़ी, जोकि इतिहास में आज तक नहीं बढ़ी, उर्वरकों के ऊपर ‘मूल्यों की नीति’ बहुत सकारात्मक बनी, कृषि विश्वविद्यालय बने, जिसमें मेरठ में सरदार पटेल कृषि विश्वविद्यालय भी था और कृषि विज्ञान केंद्रों की स्थापना हुई। 58 जिलों में 1 साल में जो काम हुए उस गति से इतिहास में कभी काम नहीं हुए। ये जो चीजें मैंने गिनवाईं इसके अलावा भी बहुत कुछ बना। उस कार्यकाल का मेरा अनुभव रहा कि माननीय वाजपेयी जी मेरी योग्यता पर, मेरी निष्ठा पर, मेरे आचरण पर बहुत भरोसा करते थे, बहुत-सी चीजों में मतभेद होते हुए भी जब मैं तर्क प्रस्तुत करता था तो न केवल वो अपने मत में परिवर्तन करते थे, बल्कि स्वीकार करते हुए उसको लागू भी करते थे। इतना उदार चरित्र इतना विचारवान, इतना दूरदर्शी व्यक्ति मैंने कम देखा है।

वंदिता मिश्रा: 2016 में, प्रधानमंत्री ने किसानों की आय दोगुनी करने का वादा किया था, क्या इस वादे को ‘वायदों का स्कैम’ कहा जा सकता है?

सोमपाल शास्त्री: निश्चित! निश्चित रूप से यह स्कैम हैं। राष्ट्रीय स्तर पर रहते हुए उच्चतर पद पर रहते हुए ‘झूठ’ (असंसदीय शब्द) बोलना, मैं पूरे विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि पूरे राष्ट्र के साथ धोखा हुआ झूठ बोला गया है; और दो बड़े झूठ और बोले गए हैं पहला झूठ, जिसको आपने अभी तक नहीं उठाया, वह था 2014 से पहले, संसदीय चुनाव से पूर्व जब भाजपा और मोदी जी अपना चुनाव अभियान चला रहे थे, उस समय उन्होंने स्वामीनाथन आयोग, जिस राष्ट्रीय किसान आयोग की बात आप कर रही थीं जिसका पहले मैं अध्यक्ष था बाद में मैंने उससे त्यागपत्र दिया। बाद में उसका पुनर्गठन किया गया और स्वामीनाथन जी को उसका अध्यक्ष बनाया गया तो यह जो C-2 लागत के ऊपर 50% जोड़कर न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित किए जाने की बात थी, यह फाइल के ऊपर मेरी फाइंडिंग पहले से ही थी, यह टिप्पणी अंकित थी उसी को स्वामीनाथन जी ने अपनी सिफारिश में लिया और कुछ अन्य सिफारिशें भी थी तो इन्होंने उसका बहुत ढोल पीटा कि हम आएंगे तो स्वामीनाथन आयोग की C-2 के ऊपर 50% जोड़कर एमएसपी घोषित करने की नीति अपनाएंगे। आने के बाद 1 वर्ष तक इन्होंने कुछ नहीं किया तो कुछ व्यक्ति किसानों के हितचिंतक एक पीआईएल (सार्वजनिक लोकहित की याचिका) लेकर सर्वोच्च न्यायालय चले गए, वहाँ इनकी सरकार ने शपथ-पत्र दाखिल कर दिया कि सरकार के पास जो वर्तमान वित्तीय संसाधन हैं उनके रहते हुए इन सिफारिशों को लागू करना संभव ही नहीं। इसका मतलब कि चुनाव के दौरान केवल चुनावी जुमलेबाजी नारेबाजी ही थी, झूठ बोलकर वोट बटोरने की नीति थी। उनको इस बात का पता पहले भी था और सरकार में आकर ये बयान दे दिया। जब दबाव बढ़ा तो इन्होनें 2016 में एक और सुर्रा छोड़ दिया कि हम किसानों की आय दोगुनी करेंगे, तो हम जैसों ने पूछा कि भाई कितने दिनों में करोगे 40 साल में 50 साल में 30 में 20 में, उसकी अवधि तो बताओ क्या लक्ष्य है? फिर इन्होंने बिना सोचे समझे कह दिया कि 2022 तक कर देंगे। अब अगर 6 वर्ष में आय दोगुनी करनी थी तो, साधारण तौर पर 12 से 12.50% आय में प्रतिवर्ष वृद्धि होनी चाहिए थी किसानों की। मैं एक उदाहरण देता हूं 2013 में मेरा बासमती जो निर्यात होता है ‘1121 पूसा’ एक बहुत बढ़िया किस्म मानी जाती है, यह चावल खुले बाजार में 4800 रुपये/कुंटल में बिका था 2013 में, एक साल बाद उसका दाम हो गया 3500 रुपये और 2015 में हो गया 2700 रुपये, वर्ष 2016 में हो गया 2400 रुपये और 2017 में ये हो गया 2200 रुपये  अट्ठारह में भी 2400-600 रहा, 19 में एक बार फिर जाकर 3200-3300 हुआ और ये जो पिछला सीजन गया है 2020 का, इसमें फिर वापस 2200-2300 रुपये आया है। तब यह बताइए जो 2013 में 4800 था, आज वो 2200-2300 है जबकि डीजल उस समय 30 रुपये हुआ करता था आज 100 रुपये के करीब है। खाद के दाम, दवाओं के दाम, मजदूरी सब बढ़ा है, आज 400 रुपये प्रतिदिन मजदूरी है उस समय 200 रुपये प्रतिदिन मजदूरी थी। मशीनरी के दाम, स्टील के दाम बढ़ गए है तो, सिर्फ सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि हुई है, आमदनी तो घटी है नेगेटिव में चली गई। अब 2022 में कितने दिन बचे हैं 8 महीने? 8 महीने में कौन सा जादू हो जाएगा? 2013 के स्तर पर जो आय थी, उसकी अपेक्षा किसान की आय 35% घटी है, एक सरकारी आंकड़ा है आप लिख लीजिए 8 दिसंबर 2020 के टाइम्स ऑफ इंडिया के दूसरे पेज पर कमीशन ऑन एग्रीकल्चर कॉस्ट एंड प्राइसेस के आंकड़े और ग्राफ छपे हैं, उसमें एक रागी और एक अन्य फसल है, शायद उड़द की दाल है उसको छोड़ कर किसी एक में भी किसान की आमदनी बढ़ी नहीं है। कुछ में तो निगेटिव हुई है, 114% घटी है। अगर आप उसका औसत निकालेंगी तो आप देखेंगी कि 2013 के मुकाबले किसानों की आमदनी दिसंबर 2020 में ही 30-35% तक घट चुकी थी। तो जो आप कह रही हैं कि यह ‘वायदों का स्कैम है तो, निश्चित रूप से एक स्कैम है, षड्यंत्र है लोगों को बहकाने का और उनसे झूठ बोलने का। इनको यह लग रहा था कि प्रचार तंत्र को और सब को अपने नियंत्रण में लेकर नारेबाजी करेंगे तो लोग वोट करेंगे और लोगों ने वोट किया भी। इस मामले में मैं किसान और आम जनता की भी गलती मानता मानता हूं, क्यों इस तरह के भावनात्मक भड़काऊ मुद्दों में आकर वोट करते हैं? अपनी रोजी-रोटी की सुरक्षा, शारीरिक सुरक्षा, शिक्षा पर वोट क्यों नहीं करते? इस तरह की नारेबाजी से क्यों प्रभावित होते हैं? जब देश की जनता इस आधार पर वोट करेगी तो नेताओं की तो मौज ही मौज है।

वंदिता मिश्रा: आप सरकार की कार्यशैली को समझते हैं, आम जनता इसको बिल्कुल नहीं समझती। जब सरकारें योजनाएँ लाती हैं तो यह अंतर्राष्ट्रीय संधियों का परिणाम होती हैं या ये जनता के वेलफेयर के लिए होतीं हैं? उज्ज्वला योजना (गैस कनेक्शन) और उजाला स्कीम (सीएफ़एल आवंटन), क्या ये पेरिस समझौते से नहीं जुड़े थे? यदि UN न होता तो क्या भारतीय महिलाओं को चूल्हे से मुक्ति न मिलती?

सोमपाल शास्त्री: देखिए ये जो अंतर्राष्ट्रीय या राष्ट्रीय या बहुराष्ट्रीय पूंजीपति संगठन है, जिसे कॉरपोरेट सेक्टर कहा जाता है उनके हित पोषण के लिए ज्यादातर नीतियां बनती है, आम आदमी की अनदेखी की जाती है, खेती का उदाहरण तो आपके सामने हैं। महिलाओं को चूल्हे से मुक्ति का जो अभियान चला था उसके पीछे भी एक बहुत बड़ा षड्यंत्र है। अंतर्राष्ट्रीय गैस भंडारों की बिक्री को बढ़ाना था, परंतु जामा पहनाया गया आम आदमी के वेलफेयर का, यह ठीक है कि उसमें कन्वीनियंस है। जब देसी ईंधन से रोटी बनती थी तो क्या सारे अंधे हो जाते थे क्या लंबी उम्र तक नहीं जीते थे पहले कितने लोग चश्मा लगाते थे आज भी वही ज्यादा स्वस्थ ईंधन है। यह सब लॉबी की वजह से होता है। शेल गैस की डिस्कवरी हुई है और हम एनवायरमेंटल फ्रेंडली फ्यूल की बात कर रहे हैं, अमेरिका मे शेल गैस के बड़े भंडार हैं, बड़े स्तर पर उसके लिए पाइप लाइन बिछाई जा रही है और कहा यह जा रहा है कि यह पर्यावरण मैत्री ईंधन है। पर असल में यह कारपोरेट सेक्टर का दबाव और उनका हित पोषण है। उसके पीछे एजेंडा कुछ होता है नारा कुछ और दिया जाता है। तो अब 2-3 सेक्टर का मैं और बताना चाहता हूं; शिक्षा का और स्वास्थ्य का। अमेरिका जैसे देश में आदमी के जीवन में जो सबसे बड़ी कठिनाई और जो सबसे ज्यादा कष्ट होता है वो दो कारणों से होता है, वहाँ हेल्थ केयर का निजीकरण हुआ, शिक्षा का निजीकरण हुआ और उसी के साथ फिर बीमा पॉलिसी जुड़ गई। अमेरिका की व्यवस्था में जो बड़े-बड़े स्कैम हुए हैं वह इन तीनों सेक्टर से संबंधित है। आप रिपोर्ट पढ़िए मैं जब 1996-97 में अमेरिका गया था एक रिपोर्ट देखी थी जो 20000 पेज की थी, वहाँ 800 स्कैंडल हुए हैं; उसमें दवा के उत्पादक, हॉस्पिटल और इंश्योरेंस कंपनियां सब मिले हुए हैं। घर में जो दवा 2.50 डॉलर की मिलती है वह हॉस्पिटल के माध्यम से 4 डॉलर की मिलती है, यही बदलाव अब ये भारत में ले आए हैं, शिक्षा में निजीकरण उसमें बड़ी-बड़ी फीस और उसमें कैपिटेशन फीस दी जाती हैं। जबकि ब्रिटेन कनाडा जर्मनी और इटली, जापान ऐसे देश हैं जहां आज भी सार्वजनिक क्षेत्र में शिक्षा का व्यवसाय चलता है और यहाँ की शिक्षा हमसे और अमेरिका से भी बेहतर है। नीति निर्धारण का जो 80-90% काम है वह कॉरपोरेट लॉबिस्ट की लॉबी से होता है, ये अधिकारियों से मिल लेते हैं और इसे ऐसी भाषा में डाल देंगे कि या तो राजनैतिक लोगों को इसके विवरण का पता नहीं होता यह उनको भी ले देकर अपने साथ कर लिया जाता है और उसे जामा पहनाते हैं जन कल्याण का लोकहित का।

वंदिता मिश्रा: राजनैतिक दिशा में जाने वाले युवाओं के लिए क्या संदेश है आपका? क्या किसी व्यक्ति को राजनीति में जाने के लिए ‘उत्पाद’ बनकर जाना होगा या राजनीति में ईमानदारी, नैतिकता और मूल्यों के माध्यम से जाने के रास्ते खुले हैं?

सोमपाल शास्त्री: देखिए, किसी भी दल के वर्तमान स्वरूप को देखें, चाहे क्षेत्रीय दल हो आंचलिक दल या राष्ट्रीय दल हो, उनमें तो ऐसे व्यक्तियों का कोई स्थान नहीं है; और अगर बिल्कुल अलग से एक लीक निकाली जाए लाइन बनाई जाए और इसमें ऐसे निष्ठावान और नैतिक जानकार लोगों को इकट्ठा करने का प्रयास किया जाए तो बहुत अच्छा होगा, पर जिस प्रकार लोगों को आदतें डाल दी गई हैं, चुनाव में शराब पिलाकर, पैसे दे कर, उसमें इन पार्टियों में ऐसी प्रतिस्पर्धा है कि कोई पीछे नहीं। कुछ परंपराएं पुराने दलों ने डाली थी पर वर्तमान शासक दल ने तो सभी की सीमाएं लांघ दी है। आम आदमी को लालच देने और उनको तरह-तरह से ललचाने की, उनके ग्रामीण क्षेत्रों के तथाकथित छुटभैया नेता को कुछ महत्व देकर वोट बटोरने के जो इस तरह के कृत्य  हैं उनके रहते हुए जनता में जो सदाशयी व्यक्ति हैं वह कितना कुछ कर पाएगा मैं तो कम से कम निराश हूं। अंत में एक बात कहूं एक जनप्रतिनिधि  से पांच अपेक्षाएं होती हैं एक तो जिन मुद्दों पर वह चुनकर जाने की बात कहता है, वह उस प्रतिनिधि सभा में संसद या विधानसभा आदि में या कॉरपोरेशन निगम में उन मुद्दों को कितनी निष्ठा ईमानदारी से उठाता है दूसरा वह अपने चुनाव क्षेत्र के विकास में कितनी रुचि लेता है तीसरा उसका व्यक्तिगत चरित्र कैसा है चौथा अगर उसको कोई अतिरिक्त पद मंत्री जैसा मिल गया तो वहां उन मुद्दों को लेकर नीति निर्धारण और उनका क्रियान्वयन कितनी योग्यता ईमानदारी से करता है और पांचवा वह लोगों के साथ व्यवहार कैसा करता है; तो मैं जब अपने आपको आँकता हूं तो मैंने इन पांचों आयामों के ऊपर अपने आप को बहुत खरा सिद्ध करने की कोशिश की है और खरा रहा हूं परंतु जब वोट मांगने जाता हूं तो मेरे विपक्ष में जो दूसरे ऐसे लोग हैं जो इन सब के विपरीत काम करते हैं वोट उनको ज्यादा मिलता है, तब क्या किया जाए? तो यह है आपका उत्तर। हां! फिर भी जीवन एक आशा के ऊपर टिका हुआ है, अगर खराबियां होती हैं तो उनमें से अच्छाइयां भी निकलती हैं इमरजेंसी में से जनता पार्टी निकली, जेपी बाहर आए थे। राजीव गांधी के समय जब भ्रष्टाचार की चीजें बाहर आई तब जनता दल निकला था। अगर लोग हिम्मत करें, क्योंकि करना चाहिए तो अच्छाइयां निकल सकती हैं। बस इतना याद रखना चाहिए कि मुखौटा कोई और लगा कर आए बात कुछ कहें और उस मनसा वाचा कर्मणा मैं जब द्वैत और त्रैत हो जाता है तब बात नहीं बनती अगर वास्तव में अच्छे लोगों का कोई संगठन बनता है तो हमें काम करना चाहिए क्योंकि समाज के प्रति हम सबका उत्तरदायित्व है।

वंदिता मिश्रा: 85 मिनट की वार्तालाप इतना लंबा इंटरव्यू मैंने आज तक नहीं लिया, आपका बहुत धन्यवाद।

सोमपाल शास्त्री: आपका भी बहुत बहुत धन्यवाद, ध्यान से सुनने के लिए।  

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