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नीति

पहाड़ पर बुलडोजर की दहाड़ और पसरी लाचारी

उत्तराखंड के पर्वतीय जनपदों में सड़कों से अतिक्रमण हटाने के लिए बुलडोजर चल रहा है। पहाड़ के शांत कस्बों में ध्वस्त मकानों का मलबा और रोजगार उजड़ने का भय पसरा हुआ है। बरसात में एक तरफ जहां अतिवृष्टि और भूस्खलन का खतरा था, तभी चौबट्टाखाल, पाटीसैण, पाबौ, नौगांवखाल बाजार, कर्णप्रयाग, अगस्त्यमुनि और सल्ट आदि कस्बों में बुलडोजर का कहर टूट पड़ा। लोगों में गुस्सा इस बात को लेकर है कि देहरादून और हल्द्वानी में अतिक्रमण पर आंखें मूंदने वाली सरकार पलायन का दंश झेल रहे पर्वतीय कस्बों को उजाड़ने करने पर क्यों आमादा है? क्या रोजगार के साधनों को मिट्टी में मिलाने से पलायन नहीं बढ़ेगा?

हाईकोर्ट का आदेश

पिछले महीने उत्तराखंड में हाईवे किनारे कस्बों में अचानक तोड़फोड़ शुरू हुई। पहले तो इसे सुप्रीम कोर्ट का आदेश बताया गया। लेकिन बाद में पता चला कि सुप्रीम कोर्ट का ऐसा कोई आदेश नहीं है। मामला नैनीताल हाईकोर्ट में एक जनहित याचिका से जुड़ा है। किसी प्रभात गांधी नाम के व्यक्ति की 19 जुलाई को लिखी चिट्ठी पर स्वत: संज्ञान लेते हुए जनहित याचिका दर्ज की गई। उस पर सुनवाई करते हुए हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस विपिन सांघी और जस्टिस राकेश थपलियाल की डबल बैंच ने 26 जुलाई को एक आदेश दिया। इस आदेश में नैनीताल समेत सभी जिलों के डीएम और डीएफओ से सड़कों के किनारे हुए अतिक्रमण की रिपोर्ट मांगी गई। साथ ही अतिक्रमण हटाने के लिए आवश्यक कदम उठाने के निर्देश दिये। मामले की अगली सुनवाई 5 सितंबर को होनी थी, और तब तक कार्रवाई की रिपोर्ट फोटोग्राफ के साथ देनी थी। इसलिए आनन-फानन में चिन्हीकरण और बुलडोजर की कार्रवाई अमल में लाई गई।

एक तरफ आपदा, दूसरी तरफ बुलडोजर

बरसात में उत्तराखंड के कई इलाके भारी बारिश और भूस्खलन की आपदा झेल रहे हैं। 15 जून से अब तक प्राकृतिक आपदाओं में 93 लोगों के मारे जाने और 16 लोगों के लापता होने की संख्या सरकारी रिकॉर्ड में दर्ज है। इस बीच, पहाड़ पर बुलडोजर की दहाड़ ने डबल आफत खड़ी कर दी। अतिक्रमण हटाने की ताबड़तोड़ कार्रवाई शुरू हुई तो पहाड़ के कई शहर और कस्बों में पुराने बाजार, सड़क किनारे की दुकानें, ढाबे और मकान बुलडोजर के निशाने पर आ गए।

पर्वतीय क्षेत्रों में नियोजित विकास की ना तो पुख्ता योजना है और ना ही पर्याप्त प्रशासनिक ढांचा। फिर भ्रष्टाचार भी कम नहीं है। नदी-नालों, जंगलों में अवैध कब्जे और अंधाधुंध निर्माण किसी से छिपा नहीं है, लेकिन बुलडोजर की मार अधिकतर छोटे दुकानदारों पर पड़ रही है। इसके खिलाफ रामनगर, धुमाकोट, कर्णप्रयाग और पौड़ी समेत कई जगह विरोध-प्रदर्शन हो रहे हैं।

उत्तराखंड के विभिन्न इलाकों में ध्वस्तीकरण

भौगोलिक और व्यवाहरिक पक्ष

उत्तराखंड के अलग राज्य बनने के बाद से ही सड़कों के किनारे और वन भूमि पर अतिक्रमण के मामले बढ़े हैं। इसके पीछे भ्रष्टाचार और अंधाधुंध निर्माण बड़ी वजह है। लेकिन एक पक्ष यह भी है कि पहाड़ के अधिकतर कस्बे तंग सड़कों के किनारे बसे हैं। एक तरफ पहाड़ है तो दूसरी तरफ खाई। अगर हाईवे के नियमों के हिसाब से देखेंगे तो पूरे बाजार ही अवैध नजर आएंगे। समाजशास्त्री और सामाजिक कार्यकर्ता प्रेम बहुखंडी बताते हैं कि उत्तराखंड में कई रास्ते ऐसे हैं जो पहले स्थानीय मार्ग थे और बाद में स्टेट या नेशनल हाईवे बने। पहले जो वैध निर्माण थे वो भी अब अतिक्रमण के तौर पर चिन्हित हो गए। पलायन की पीड़ा झेल रहे पहाड़ में रोजगार और आर्थिक गतिविधियों का जरिया ये बाजार ही हैं। इसलिए बुलडोजर चलाने से पहले लोगों के पुनर्वास, मानवीय और व्यावहारिक पहलुओं पर ध्यान देना जरूरी है।

35 साल पुरानी दुकानें टूटी

अतिक्रमण और ध्वस्तीकरण के मसले में कई कानूनी पेंच हैं। पौड़ी-श्रीनगर नेशनल हाईवे से अतिक्रमण हटाने के लिए प्रशासन का बुलडोजर उन दुकानों पर भी चला जो नगरपालिका पौड़ी ने 1988 में व्यापारियों को अस्थायी तौर पर आवंटित की थीं। यानी 35 साल बाद अतिक्रमण का पता चला। जबकि इस दौरान नगरपालिका दुकानों का किराया वसूलती रही। जो दुकानें बीते 35 साल से रोजगार का जरिया थीं, उन्हें एक झटके में जमींदोज कर दिया। कई जगह लोगों के पास जमीन के कागजात हैं, लेकिन सड़क चौड़ी होने की वजह से वे बुलडोजर के निशाने पर आ गये।

बढ़ता जन आक्रोश

अतिक्रमण के खिलाफ कार्रवाई के नाम पर पहाड़ी कस्बों में तोड़फोड़ को लेकर लोगों में काफी रोष व्याप्त है। विपक्ष इस मुद्दे पर सरकार को घेरने में जुटा है। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष करन माहरा ने इस मुद्दे पर मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी को पत्र लिखकर पर्वतीय क्षेत्र में अतिक्रमण हटाने के नाम पर किये जा रहे ध्वस्तीकरण को रोकने की मांग की है।

केदारनाथ के पूर्व विधायक मनोज रावत भाजपा सरकार पर जनता का पक्ष सही तरीके से कोर्ट में ना रखने का आरोप लगाते हैं। रावत का कहना है कि जब सरकार देहरादून में रिस्पना नदी के किनारे अतिक्रमण को बचाने के लिए अध्यादेश ला सकती है तो उत्तराखंड के मूल निवासियों के अधिकारों की रक्षा क्यों नहीं की जा रही है।

यमुनोत्री से निर्दलीय विधायक संजय डोभाल ने भी सरकार पर पहाड़ के लोगों के साथ अन्याय करने का आरोप लगाया है। डोभाल ने कहा कि शहरों में बड़े होटलों, रिसॉर्ट आदि के अतिक्रमण पर सरकार आंख मूंद लेती है, जबकि पहाड़ में छोटे-मोटे रोजगार करने वालों पर गाज गिर रही है। उत्तराखंड क्रांति दल और वामपंथी संगठन भी अतिक्रमण विरोधी अभियान को लेकर सरकार की नीति और तौर-तरीकों पर सवाल उठा रहे हैं।

विपक्ष का विधानसभा में हंगामा

पांच सितंबर को उत्तराखंड विधानसभा का मानसून सत्र शुरू होने से पूर्व कांग्रेस के विधायकों ने अतिक्रमण हटाने के नाम पर लोगों को उजाड़ने समेत कई मुद्दों पर सरकार को जमकर घेरा। नेता प्रतिपक्ष यशपाल आर्य ने कहा कि अतिक्रमण हटाने के नाम पर आम जनता और व्यापारियों को परेशान किया जा रहा है। उधर, भाजपा इस मुद्दे को लेकर बैकफुट पर है।

भाजपा प्रदेश अध्यक्ष महेंद्र भट्ट अतिक्रमण हटाने के हाईकोर्ट के निर्णय को लेकर कांग्रेस पर भ्रम फैलाने का आरोप लगाया है। उनका कहना है कि मामला हाईकोर्ट के निर्णय से जुड़ा होने के कारण सभी कानूनी पहलुओं पर विचार करने के बाद जनहित में जो भी संभव होगा, कदम उठाए जाएंगे। अक्सर बुलडोजर की कार्रवाई का श्रेय लेने वाली भाजपा पहाड़ में बुलडोजर के मुद्दे पर बैकफुट पर है।

बुलडोजर राजनीति की विवशता

बुलडोजर ताकतवर सत्ता का ताकत का प्रतीक बन चुका है। उत्तराखंड में वन भूमि पर बनी अवैध मजारों पर बुलडोजर चलवाकर मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने खूब वाहवाही बटोरी थी। इसी तरह हल्द्वानी की बनभूलपुरा बस्ती को उजाड़ने के मामले को भी सियासी नजरिये से देखा गया। लेकिन अब वही बुलडोजर पहाड़ के बाजारों को उजाड़ रहा है। ऐसे में भाजपा के लिए भी बुलडोजर का समर्थन करना मुश्किल हो गया है।

हल्द्वानी का मामला जिस तरह राष्ट्रीय सुर्खियों में छाया रहा और सुप्रीम कोर्ट तक जाकर रोक लगवाई गई, वैसा पहाड़ में बुलडोजर चलने पर नहीं हुआ। इसकी वजह यह भी है कि पहाड़ में बड़े पैमाने पर बुलडोजर चलने के बावजूद यह सिर्फ प्रभावित लोगों का मुद्दा बना हुआ है। इससे व्यापक समाज का बहुत जुड़ाव नहीं है। इसलिए भी पहाड़ में रोजगार के बचे-खुचे अवसरों पर आसानी से कुठाराघात हो रहा है।

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