खटीमा में हार के बावजूद पुष्कर सिंह धामी मार्च में दूसरी बार मुख्यमंत्री बनकर मुद्दर का सिकंदर कहलाए, लेकिन इसके तत्काल बाद अप्रैल में वीपीडीओ रिजल्ट के साथ ही जैसे उनका बुरी खबरों का शुरू हो गया। भर्तियों में लीकेज का मामला अगस्त आते-आते ज्वालामुखी बन गया। इस बीच विधानसभा में बैकडोर भर्तियों का मामला भी उछला। जिस पर कमेटी बनी और विधानसभा के ढाई सौ से अधिक कर्मचारियों को बर्खास्त किया जा चुका है। अब 2015 में भर्ती पुलिस के 20 दरोगा पहली नजर में पेपर खरीद कर सफल होने के आरोप में चिन्हित किए गए हैं, जिन्हें निलंबित कर दिया गया है।
इस बीच अधीनस्थ सेवा चयन आयोग के बाद पटवारी भर्ती लीक के बाद लोक सेवा आयोग की साख भी रसातल में पहुंच चुकी है। पुष्कर सिंह धामी की सरकार इन मामलों में लगातार कार्रवाई कर रही है। सरकार की मंशा दोषियों को बचाने की भी नजर नहीं आती, फिर भी सरकार का चेहरा होने के कारण सारा दोष मुख्यमंत्री के सिर पर आना तय है।
बहरहाल, इस समय उत्तराखंड में नौकरियों की बंदरबांट स्थायी मुद्दा बन चुका है, जो अस्कोट से आराकोट सबको उद्वेलित किए हुए है। अब आलम यह है कि कब किसका नंबर आ जाए कहना मुश्किल है। ऐसा लगता है कि सब कुछ स्वत: स्फूर्त तरीके से हो रहा है। जनक्रोश इस कदर है कि सरकार को हर बार नई नजीर पेश करते हुए कड़ी कार्रवाई करनी पड़ रही है।
गौर से देखा जाए तो हर व्यवस्था में 20-25 साल में यह दौर आता है, जब वर्षों का गुबार यूं ही खुद बाहर निकलता है। इसमें किसी का खास योगदान नहीं होता। कुछ लोग नायक बनकर जरूर उभरते हैं, वो नायक बाद में कहां पहुंचते हैं यह और बात है ( याद कीजिए, 2012 का अन्ना आंदोलन, अरविंद केजरीवाल का उदय) पर यह मूल रूप से व्यवस्था की खुद की सफाई ही है। उत्तराखंड में भी इस वक्त यही हो रहा है। एक तरह से यह उत्तराखंड का अमृत काल चल रहा है, शायद कुछ सुधार भी हाथ लगे। कोई नई बीमारी लगने तक ही सही।
