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पर्यावरण

चारधाम परियोजना के रास्ते उत्तराखंड में बड़े पर्यावरण संकट की दस्तक!

उत्तराखंड में बड़ी इंफ्रास्ट्रक्चर योजनाओं के प्रभाव का आकलन किए बिना आगे बढ़ने की गलती को बार-बार दोहराया जा रहा है।

उत्तराखंड में चारधाम (गंगोत्री, यमुनोत्री, केदारनाथ और बद्रीनाथ) को ऑल वेदर रोड से जोड़ने की जिस परियोजना की खामियों को लेकर पर्यावरणविद काफी समय से आगाह कर रहे थे, वे आशंकाएं अब सच साबित हो रही हैं। उत्तराखंड में पिछले दिनों हुई भारी बारिश के बाद चारधाम हाईवे जगह-जगह भूस्खलन की चपेट में आ गया है। कहीं पहाड़ दरक गए तो कहीं सड़क बह गई। कहीं बड़े पत्थर और मलबा आने से रास्ते बंद हो गए हैं। अब नए-नए इलाकों में भूस्खलन हो रहा है। जिसे ऑल वेदर रोड बताया जा रहा था, उसके रास्तों को खोलना और यात्रियों को सुरक्षित निकालना स्थानीय प्रशासन के लिए बड़ी चुनौती बन गया है।   

प्राकृतिक आपदाओं से लगातार जूझ रहे उत्तराखंड में बड़ी इंफ्रास्ट्रक्चर योजनाओं के प्रभाव का आकलन किए बिना आगे बढ़ने की गलती को बार-बार दोहराया जा रहा है। चारधाम परियोजना इसका ताजा उदाहरण है। हिमालय की संवेदनशीलता, पर्यावरण मानकों और सुरक्षा उपायों को नजरअंदाज करते हुए जिस तरह ऑल वेदर रोड के लिए पहाड़ों को काटा गया, हजारों पेड़ों का कटान हुआ और मलबे को नदियों में डंप किया गया, उसने एक बड़ेे पर्यावरण संकट को जन्म दिया है। चारधाम हाईवे पर भूस्खलन से तबाही को इस संकट की आहट माना जा सकता है।

भूस्खलन की चपेट में ऑल वेदर रोड

अकेले टिहरी गढ़वाल जिले में चारधाम हाईवे के 150 किलोमीटर हिस्से में जिला प्रशासन ने 60 डेंजर जोन चिह्नित किए हैं, जहां यात्रा करना जोखिम भरा हो सकता है। पिछले दिनों हुई भारी बारिश के बाद ऋषिकेश-बद्रीनाथ हाईवे पर तोताघाटी समेत कम से कम 18 जगह मलबा गिरने की जानकारी स्थानीय मीडिया ने रिपोर्ट की है। भूस्खलन की वजह से 27 अगस्त को राष्ट्रीय राजमार्ग-58 को तपोवन से मलेथा तक आवागमन के लिए बंद करना पड़ा। ऋषिकेश से गंगोत्री जाने वाले नेशनल हाईवे-94 का एक बड़ा हिस्सा टिहरी गढ़वाल जिले में फकोट के पास भूस्खलन में बह गया। नतीजन, एनएच-94 को भी नरेंद्रनगर से चंबा तक बंद करने का आदेश देना पड़ा। टनकपुर-पिथौरागढ़ राष्ट्रीय राजमार्ग भूस्खलन के कारण पिछले एक सप्ताह से बंद पड़ा है।

पर्यावरण नियमों की अनदेखी

करीब 12 हजार करोड़ रुपये की लगात वाली 889 किलोमीटर की चारधाम परियोजना में मुख्य रूप से सड़कों के चौड़ीकरण का काम शामिल है। पर्वतीय क्षेत्रों में सड़कों को कितना चौड़ा किया जाए, इसे लेकर काफी विवाद रहा है। ज्यादा चौड़ी सड़क के लिए पहाड़ों को ज्यादा खोदना पड़ता है जिससे भूस्खलन का खतरा बढ़ जाता है। केंद्रीय सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्रालय वर्ष 2016 में परियोजना की शुरुआत से ही 10-12 मीटर चौड़ी ऑल वेदर रोड बनाने पर जोर दे रहा है। इसके लिए न सिर्फ पर्यावरण नियमों की अनदेखी हुई बल्कि सड़क परिवहन मंत्रालय ने पहाड़ी राजमार्गों के लिए निर्धारित 5.5 से 7 मीटर चौड़ाई के अपने ही मानक को बदल दिया।

पर्यावरण प्रभाव आकलन (EIA) से बचने के लिए 889 किलोमीटर के चारधाम प्रोजेक्ट को 53 टुकड़ों में बांटा गया है। क्योंकि 100 किलोमीटर से बड़ा प्रोजेक्ट होने पर पर्यावरण प्रभाव का आकलन कराना जरूरी होता है। यह अपनी तरह का विचित्र मामला है जहां केंद्र सरकार ने अपने ही नियम-कायदों को नजरअंदाज किया।

हिमालय के इकोसिस्टम को नुकसान

जब चारधाम परियोजना में पर्यावरण से खिलवाड़ का मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा तो पर्यावरणविद रवि चोपड़ा की अध्यक्षता में एक उच्चाधिकार समिति गठित की गई थी। समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि चारधाम परियोजना के अवैज्ञानिक व अनियोजित क्रियान्वयन से हिमालय के इकोसिस्टम को नुकसान पहुंचा है और भूस्खलन जैसी आपदाओं को बुलावा दिया जा रहा है।

रवि चोपड़ा समिति की रिपोर्ट के मुताबिक, कई जगह जोखिम का अनुमान लगाए बगैर पहाड़ी ढलानों को सीधा या लगभग लंबवत काटने से स्लोप फेलयर का खतरा बढ़ गया है। एनएच-125 पर 174 पहाड़ी कटाव में से 102 कटाव भूस्खलन संभावित हैं जबकि दिसंबर, 2019 तक स्लोप फेलयर की 44 घटनाएं हो चुकी थीं। 2020 के शुरुआती चार महीनों में स्लोप फेलयर की 11 घटनाएं हुई थीं। समिति ने भूस्खलन रोकने के उपायों को नाकाफी मानते हुए बारिश के बाद भूस्खलन बढ़ने को लेकर आगाह किया था।

ड़क चौड़ी करने की जिद्द

चारधाम हाईवे की चौड़ाई के मुद्दे पर उच्चाधिकार समिति एक मत नहीं थी। इसलिए दो रिपोर्ट पेश की गईं। अध्यक्ष रवि चोपड़ा समेत समिति के तीन सदस्य हिमालय की संवेदनशील पारिस्थितिकी को देखते हुए सड़क की चौड़ाई 5.5 मीटर (ब्लैक टॉप) रखने के पक्ष में थे। लेकिन समिति के 21 सदस्य, जिनमें अधिकतर सरकारी अधिकारी थे, चारधाम हाईवे के दो लेन वाले मूल डिजाइन को लागू करने के पक्ष में थे क्योंकि परियोजना के बड़े हिस्से में 10-12 मीटर चौड़ी सड़क के लिए खुदाई हो चुकी थी।

पिछले साल सितंबर में सुप्रीम कोर्ट ने चारधाम हाईवे की चौड़ाई 5.5 मीटर रखने के रवि चोपड़ा समिति के सुझाव को मान भी लिया था। लेकिन फिर रक्षा मंत्रालय ने सैन्य जरूरतों को ध्यान में रखते हुए सड़क की चौड़ाई बढ़ाने का अनुरोध किया। इस बीच, सड़क परिवहन मंत्रालय ने भी पर्वतीय राजमार्गों के लिए 5.5 मीटर चौड़ाई का मानक बदलकर 10 मीटर चौड़ी सड़क का रास्ता साफ कर दिया। इसके पीछे टोल वसूली की मंशा को वजह माना जा रहा है। फिलहाल यह मामला सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है।

परियोजना में तमाम खामियां

पर्यावरणविद रवि चोपड़ा का कहना है कि चारधाम परियोजना के लिए उन्होंने चौड़ी और असुरक्षित सड़क की बजाय पर्यावरण को ध्यान में रखते हुए कम जोखिम वाली सड़क बनाने का सुझाव दिया था, लेकिन समिति में यह सुझाव अल्पमत में रहा। उनका मानना है कि चारधाम परियोजना की प्लानिंग, डिजाइन और कंस्ट्रक्शन में कई खामियां हैं। जिस तरह चारधाम हाईवे पर जगह-जगह भूस्खलन की घटनाएं हो रही हैं, उसे देखते हुए इस परियोजना को लेकर बहुत सावधानी बरतने की जरूरत है।

खोखले निकले ऑल वेदर रोड के दावे

चारधाम परियोजना से पैदा पर्यावरण संकट का असर स्थानीय जनजीवन पर साफ देखा जा सकता है। कर्णप्रयाण निवासी सीपीआई (एमएल) के नेता इंद्रेश मैखुरी कहते हैं कि ऑल वेदर रोड किस तरह की तबाही लेकर आई है, उसके भयावह दृश्य सबके सामने हैं। जिन सड़कों पर पहले एक-दो जगह भूस्खलन होता था वहां भूस्खलन के नए-नए क्षेत्र बन गए हैं। ऑल वेदर रोड के सारे दावे खोखले साबित हुए हैं। इस परियोजना में पहले दिन से ही पर्यावरण मानकों के साथ खिलवाड़ हुई, जिसकी कीमत राज्य और यहां की जनता को चुकानी पड़ रही है।

उत्तराखंड में बढ़ी भूस्खलन की घटनाएं

मौसम के बदले मिजाज, बादल फटने और भारी बारिश के कारण भी उत्तराखंड में भूस्खलन जैसी आपदाओं का खतरा बढ़ा है। उत्तराखंड राज्य आपदा प्रबंधन विभाग के आंकड़ों के मुताबिक, 2016 में राज्य में भूस्खलन की 18 घटनाएं दर्ज की गई थीं जबकि 2020 में भूस्खलन की 973 घटनाएं दर्ज की गई हैं। साल 2021 में भूस्खलन की 244 घटनाएं हो चुकी हैं। राज्य में अतिवृष्टि और बाढ़ की घटनाएं भी काफी बढ़ी हैं, इसलिए इंफ्रास्ट्रक्चर से जुड़ी बड़ी परियोजनाओं पर बहुत सोच-समझकर आगे बढ़ना चाहिए।

जलवायु परिवर्तन का खतरा

हालांकि, अभी ऐसा कोई अध्ययन नहीं हुआ है जो साबित कर सके कि चारधाम परियोजना की वजह से भूस्खलन की घटनाएं कितनी बढ़ी हैं, लेकिन भूस्खलन की हालिया घटनाएं इस तरफ इशारा जरूर कर रही हैं।

वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालय जियोलॉजी के पूर्व वैज्ञानिक डॉ. डीपी डोभाल भूस्खलन की घटनाओं को जलवायु परिवर्तन के कारण कम समय में अत्यधिक बारिश और बादल फटने जैसे कारकों से भी जोड़कर देखते हैं। उनका मानना है कि हिमालय जैसे संवेदनशील क्षेत्र में किसी भी बड़ी परियोजना को लागू करने से पहले पर्यावरण पर प्रभाव और भूवैज्ञानिक अध्ययन को महत्व देना चाहिए।

भूवैज्ञानिक निगरानी जरूरी

भूगर्भशास्त्री डॉ. अजय कुमार बियानी का मानना है कि सड़क निर्माण के कारण भूस्खलन होने की दो-तीन प्रमुख वजह हो सकती हैं। ऐसी परियोजना के लिए पूरे पहाड़ी ढलान का ऊपर से नीचे तक जियोलॉजिकल सर्वे होना चाहिए। अक्सर जितनी जगह पहाड़ काटा जाना है सिर्फ उसी जगह का सर्वे होता है। चट्टानों की प्रकृति और भूसंरचना को समझे बगैर गलत कोण से पहाड़ को काटना भी भूस्खलन का कारण बन सकता है। कई बार समय और खर्च बचाने के लिए अनियंत्रित विस्फोट की वजह से भी भूस्खलन होता है। पहाड़ कटने के बाद स्लोप के स्थिर होने में समय लगता है। इसलिए नई सड़कों पर भूस्खलन की घटनाएं बढ़ जाती है। इन स्थितियों से निपटने के लिए भूस्खलन संभावित क्षेत्रों की निरंतर निगरानी जरूरी है।  

बनेगा चुनावी मुद्दा

चारधाम परियोजना के राजमार्गों पर भूस्खलन के कारण लोगों को भारी परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है। छोटी दूरी तय करने के लिए भी काफी घूमकर जाना पड़ता है। इससे यात्रा का समय और खर्च बढ़ गया है। चीजों के दाम बढ़ने लगे हैं। स्थानीय लोगों को हो रही इन परेशानियों को देखते हुए आगामी विधानसभा चुनावों में चारधाम परियोजना एक बड़ा मुद्दा बन सकती है। विपक्षी दलों ने इस मुद्दे को जोरशोर से उठाना शुरू कर दिया है। भाजपा के लिए परियोजना का बचाव करना मुश्किल होता जा रहा है।

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