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संघर्ष

किसान राजनीति में एक कंप्यूटर इंजीनियर

चौ. अजित सिंह के सत्ता से दूर होने के बावजूद किसानों में एक अहसास का था कि दिल्ली में उनका कोई है। राजनीतिक नुकसान उठाकर भी उन्होंने किसान और भाईचारे का पक्ष चुना। यह याद रहेगा।

कम लोगों को मालूम होगा कि भारतीय राजनीति में आने वाले पहले IITian पूर्व केंद्रीय मंत्री चौ. अजित सिंह थे। आईआईटी, खड़गपुर से बीटेक करने के बाद उन्होंने अमेरिका से मास्टर्स किया। 60 के दशक में वे IBM के साथ काम करने वाले शुरुआती भारतीयों में शामिल थे। यह बात अलग है राजनीति में उनकी पहचान किसान नेता की बनी और वे केंद्रीय कृषि मंत्री भी रहे।

टेक्नोलॉजी की उनकी समझ को मैंने तब देखा जब वे केंद्र सरकार में सिविल एविएशन मिनिस्टर थे। उन दिनों मैं अमर उजाला की तरफ से मिनिस्ट्री कवर करता था। एविएशन सेक्टर में एफडीआई और छोटे हवाई अड्डों के विकास की नीति उनके समय बनी। जब तक मंत्री रहे उन्होंने एयर इंडिया को बिकने नहीं दिया। एविएशन सेक्टर की पेचीदगियों को बखूबी समझते थे। उससे ज्यादा पकड़ कृषि से जुड़े मामलों पर थी।

आर्थिक उदारीकरण के शुरुआती दौर में वे केंद्र में खाद्य उद्योग मंत्री रहे। उसी का नतीजा था कि उन्होंने यूपी में चीनी मिलों की लाइन लगा दी। गन्ने ने किसान को आर्थिक मजबूती और राजनीतिक ताकत दी। यह बात अलग है कि किसान की यह ताकत साम्प्रदायिक राजनीति की लहर में बिखर गई, जिसे एकजुट करने के प्रयास जारी हैं।

चौ. अजित सिंह के खाते में नाकामियां कम नहीं थीं। पिछला एक दशक उनके लिए राजनीतिक शिकस्त से भरपूर रहा। लेकिन चुनाव हारकर भी उनका आचरण बेहद मर्यादित और शालीन बना रहा। इसलिए पद जाने के बाद भी उनका कद छोटा नहीं हुआ। क्योंकि वे पद से बने हुए नेता नहीं थे। लोग उनमें चौधरी चरण सिंह की झलक देखते थे और किसानों के मुद्दों से उनका सहज जुड़ाव था।

चौ. अजित सिंह अपनी उपलब्धियों का ज्यादा बखान नहीं करते थे। मीडिया और प्रचार से दूरी का उन्हें नुकसान पहुंचा। लेकिन विवादित बयानबाजी और अमर्यादित भाषा का इस्तेमाल करने से बचते थे। ना ही लोगों को भड़काने और लड़ाने में उनका यकीन था। हालांकि, इन गुणों के साथ भाजपा का मुकाबला करना मुश्किल था। लेकिन वे जैसे थे, वैसे ही रहे। पत्रकार उनके खिलाफ कुछ भी छाप देते थे, खंडन तो दूर वे संज्ञान भी नहीं लेते थे। विरोधियों पर हमले बोलने में भी संयम बरता। टीवी की तू-तू, मैं-मैं से तो हमेशा दूर ही रहे। भारतीय राजनीति में ऐसी गरिमापूर्ण उपस्थिति को उनकी कमजोरी माना गया।

कई बार उनके करीबी लोगों ने उनका साथ छोड़ दिया। मुझे आज भी याद है 2014 में जब उनके खास रहे एक आईपीएस अधिकारी उनके खिलाफ बागपत से मैदान में उतरे, तब भी उन्होंने बहुत नाराजगी जाहिर नहीं की। उनके पास हर मुश्किल का सामना मुस्कुराकर करने का हुनर था। गिरते राजनीतिक मूल्यों के बीच भारतीय राजनीति में इस मुस्कुराहट की कमी खलती रहेगी।

भले ही अजित सिंह राजनीति के शीर्ष तक नहीं पहुंच सके। लेकिन उनके रहते किसान और जाट समुदाय में एक अहसास था कि “दिल्ली में म्हारा कोई है।” यह अहसास उनके चुनाव हारने के बाद भी बना रहा। उनके निधन के साथ इस अहसास ने भी दम तोड़ दिया। पिछले साल किसान आंदोलन को उन्होंने उस वक्त मजबूती दी जब सबसे ज्यादा जरूरत थी। राजनीतिक नुकसान उठाकर भी किसान और भाईचारे का पक्ष चुना। यह बड़ी बात है। यही याद रहेगी।

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