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बिहार में बांस की खेती क्यों छोड़ रहे हैं किसान

बांस की खेती पारंपरिक तौर पर भारत में होती आई है। हालांकि, इसे वृक्ष की श्रेणी में रखे जाने से इसकी व्यावसायिक खेती को उतना बढ़ावा नहीं मिला जितना मिलना चाहिए था। इसलिए केंद्र सरकार ने इसे कानून में संशोधन करके वृक्ष की श्रेणी से बाहर निकालने का काम किया है।

इसके बावजूद बांस की खेती को लेकर किसानों में उत्साह का माहौल नहीं है। बिहार से यह जानकारी मिल रही है कि राज्य के जिन इलाकों में बांस की खेती होती थी, उन इलाकों के लोग अब बांस की खेती छोड़ रहे हैं।

बिहार में पारंपरिक तौर पर कोसी और सीमांचल क्षेत्र में बांस की खेती होती आई है। इस क्षेत्र में बांस से बनने वाले उत्पाद भी बड़े पैमाने पर इस्तेमाल होते आए हैं। बांस के उत्पाद इस क्षेत्र राज्य के दूसरे इलाकों में भी भेजे जाते हैं। लेकिन अब इस क्षेत्र के किसान बांस की खेती से किनारा कर रहे हैं।

इसकी कई वजहें हैं। सबसे पहली वजह तो यह बताई जा रही है कि यहां के किसानों को सरकार से बांस की खेती के लिए जिस तरह की मदद की उम्मीद थी, उस तरह की मदद इन्हें नहीं मिल पा रही है। इस क्षेत्र के किसानों का कहना है कि बांस की खेती को प्रोत्साहित करने की बात सरकार राष्ट्रीय बांस मिशन के तहत तो करती है लेकिन जमीनी स्तर पर उन्हें सरकार की ओर कोई मदद नहीं मिल रही है।

बिहार सरकार ने इस इलाके में बांस की खेती को देखते हुए पहले यह भी कहा था कि इस क्षेत्र में बांस आधारित उद्योग स्थापित किए जाएंगे। लेकिन यह सरकारी वादा भी पूरा नहीं हो पाया। जबकि किसानों ने यह उम्मीद लगा रखी थी कि अगर बांस आधारित उद्योग लगते हैं तो इससे उन्हें लाभ होगा और इस क्षेत्र में होने वाली बांस की खेती को और प्रोत्साहन मिलेगा।

एक बात यह भी चल रही थी कि इस क्षेत्र में कागज के कारखाने लगाए जाएं। क्योंकि कागज उत्पादन में लकड़ी के पल्प के साथ-साथ बांस के पल्प का इस्तेमाल भी बड़े पैमाने पर होता है। बल्कि बांस के पल्प को कागज उत्पादन के लिए ज्यादा अच्छा माना जाता है। इस आधार पर यह कहा जा रहा था कि इस क्षेत्र में कागज उद्योग के लिए काफी संभावनाएं हैं। क्योंकि इस उद्योग के लिए बांस के रूप में कच्चा माल पर्याप्त मात्रा में यहां उपलब्ध है। लेकिन इस क्षेत्र में कागज उद्योग भी विकसित नहीं हो पाया।

बांस की खेती से किसानों की बढ़ती दूरी की एक वजह यह भी बताई जा रही है कि अब बांस से बनने वाले उत्पादों की मांग में कमी आती जा रही है। पहले सामाजिक और धार्मिक आयोजनों के साथ रोजमर्रा के कार्यों में भी बांस से बनने वाले उत्पादों का इस्तेमाल होता था। अब इनकी जगह प्लास्टिक के उत्पाद लेते जा रहे हैं।

बांस के उत्पाद पारंपरिक ढंग से बनते हैं। इसलिए इनमें श्रम लगता है। इस वजह से इनकी लागत अधिक होती है। जबकि प्लास्टिक उत्पादों का उत्पादन बड़े-बड़े कारखानों में अत्याधुनिक मशीनों के जरिए होता है। इसलिए इनका उत्पादन लागत कम होता है और बांस के उत्पादों के मुकाबले प्लास्टिक उत्पाद अपेक्षाकृत कम पैसे में लोगों को मिल जाते हैं।

बिहार के कोसी और सीमांचल क्षेत्र में बांस की खेती से किसानों के दूर होने की वजह से इस क्षेत्र में बेरोजगारी बढ़ने की आशंका व्यक्त की जा रही है। यह भी कहा जा रहा है कि बेरोजगारी बढ़ने से इन क्षेत्रों से दिल्ली और मुंबई जैसे औद्योगिक केंद्रों की ओर पलायन भी बढ़ सकता है। क्योंकि स्थानीय स्तर पर जब बांस की खेती में लगे किसान और मजदूर बेरोजगार होंगे तो स्वाभाविक ही है कि ये रोजगार की तलाश में शहरी केंद्रों का रुख करेंगे।

बांस की खेती से किसानों के अलग होने से इस क्षेत्र में बाढ़ से और अधिक नुकसान होने की आशंका पैदा होगी। उल्लेखनीय है कि यह क्षेत्र बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में शुमार किया जाता है और इस क्षेत्र को अमूमन हर साल ही बाढ़ का सामना करना पड़ता है। बांस की खेती होने से बाढ़ की स्थिति में मिट्टी का कटाव कम होता है और बाढ़ का पानी एक हद तक रोकने का काम भी बांस की खेती के जरिए होता है। ऐसे में अगर इस क्षेत्र में बांस की खेती लगातार कम होती जाएगी तो इससे इस क्षेत्र में बाढ़ की स्थिति में पहले के मुकाबले और अधिक नुकसान होगा।

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